16 March 2008

होली पर तीन कविताएँ


फागुनी बयार


फागुनी रंगों भरी बयार
आ पहुँची आपके द्वार
ऋतुराज वसन्त का आगमन
झंकृत हो उठा मन उपवन।
कण-कण में रंगों की तरुणाई झाँकी
इतराई पुष्पों की छवि बाँकी।
धरती सौंदर्य से इठलाकर
सूर्य किरण आँखों में रचकर
उड़े कभी इस पार, कभी उस पार
फागुनी रंगों भरी बयार।
आलिंगन करता बार-बार
मोहित हो भ्रमर राज
गुन-गुन करता गुंजार
देखकर कलियों का शृंगार।
यही है प्रेम प्रदर्शन
उसके हाथ में चक्रसुदर्शन
जीवन को पुकार
सुख व स्नेह का आँचल पसार खड़ी हुई
फागुनी बयार आई आपके द्वार।


-उमा मालवीय
('आँगन की धूप` पुस्तक से)





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फागुन और बयार


ठंडी चले बयार,
गंध में डूबे आंगन द्वार
फागुन आया।
जैसे कोई थाप चंग पर देकर फगुआ गाए
कोई भीड़ भरे मेले में मिले और खो जाए
वेसे मन के द्वारे आकर
रूप करे मनुहार
जाने कितनी बार
फागुन आया।
जैसे कोई किसी बहाने अपने को दुहराए
तन गदराए, मन अकुलाए, कहा न कुछ भी जाए,
वैसे सूने में हर क्षण ही
मौन करे शृंगार,
रंगों के अम्बार
फागुन आया।


-डॉ० तारादत्त 'निर्विरोध`
(खनन भारती, अंक ११७, फरवरी २००७ से साभार)

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होली


जबसे दूर हुए तुम मुझसे
सभी पड़ोसी करें ठिठोली
मत पूछो तुम हाल हमारा
कैसे कटी हमारी होली।
इधर तुम्हारा पत्र न आया
अपने सब बीमार हो गये
खाली हाथ रह गया मौसम
व्यर्थ सभी त्योहार हो गये।
देख रहा है घर में फागुन
बुझी-बुझी लग रही रंगोली।
कैसे कटी हमारी होली।।
कुछ तो तुम अन्याय कर रहे
कुछ करता भगवान हमारा
उजड़ रहा है मन उपवन का
हरा भरा उद्यान हमारा
मिलने कभी नहीं आते हैं
अब हमसे अपने हमजोली।
कैसे कटी हमारी होली।।
रोज मुंउेरे कागा बोले
लेकिन कुछ विश्वास नहीं है
अपनी इस धरती के ऊपर
अपना वह आकाश नहीं है
किसको रंग गुलाल लगायें
लेकर अक्षत चंदन रोली।
कैसे कटी हमारी होली।।
हमने बड़ी मनौती की है
पूजे मंदिर और शिवाले
किन्तु पसीजे नहीं कभी तुम
कैसे हो पत्थर दिल वाले
हमें न अब तक मिला कभी कुछ
खाली रही हमारी झोली।
कैसे कटी हमारी होली।।


-डॉ० अशोक आनन 'गुलशन`
(खनन भारती, अंक ११७, फरवरी २००७ से साभार)

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