07 August 2008

शरद रातों को

शरद रातों को
लिहाफ पर लेप कर
सपनों के सिंदूर में
नींद को सेंकता हूँ
मजे से खाता हूँ
और
सुबह जब सूरज
मेरे घर को बुहारने आता है,
तो
आँख में अटके
धूप के कतरों को मसलता मैं
मकान की आँख से झाँकता हूँ
बहार देखता हूँ ........ कि
शरद किलों से जड़ें
रात के बंडल
सूरज की तपिश से
अण्डों की तरह चटकते हैं,..... और
खोल लादे बिखर जाते हैं
दाने पानी की जुगत में।
दिन भर
वहाँ सन्नाटा उछलता है
साँझ उगते ही
खिंच आते हैं आधे पेट
ठंड कीलें ठोकती है
फिर गठरियाँ बनने लगती हैं
रोज दर रोज
इन शरद रातों में.....।

-रामनिवास बांयला
सीकर (राजस्थान)

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