(1)
पिंजरें में कैद पंछी कितनी उड़ान लाते
अपने परों में कैसे वो आसमान लाते।
कागज पे लिखने भर से खुशहालियाँ जो आतीं
अपनी गजल में हम भी हँसता सिवान लाते।
हथियार की जरूरत बिल्कुल नहीं थी भाई
मज़हब की बात करते, गीता कुरान लाते।
तन्हा ज़बान की तो लत झूठ की लगी थी
फिर रहनुमा कहाँ से सच की ज़बान लाते।
पहले ही सुन चुके हैं आँसू के खूब किस्से
अब तो कहीं से खुशियों की दास्तान लाते।
-कमलेश भट्ट कमल
(2)
औरत है एक कतरा, औरत ही खुद नदी है
देखो तो जिस्म, सोचो तो कायनात-सी है।
संगम दिखाई देता है उसमें गम़-खुशी का
आँखों में है समन्दर, होठों पे इक हँसी है।
ताकत वो बख्श़ती है ताकत को तोड़ सकती
सीता है इस ज़मीं की, जन्नत की उर्वशी है।
आदम की एक पीढ़ी फिर खा़क हो गई है
दुनिया में जब भी कोई औरत कहीं जली है।
मर्दों के हाथ औरत बाजार हो रही है
औरत का गम नहीं ये मर्दों की त्रासदी है।
-कमलेश भट्ट कमल
(3)
देह के रहते ज़माने की कई बीमारियाँ भी हैं
आदमी होने की लेकिन हममें कुछ खुद्दारियाँ भी हैं।
कोई भी खुद्दार अपनी रूह का सौदा नहीं करता
और करता है तो इसमें उसकी कुछ लाचारियाँ भी हैं।
चाहतें जीने की छोड़ी जायेंगी हरगिज नहीं हमसे
जिन्दगी में यूँ कि ढेरों ढेर-सी दुश्वारियाँ भी हैं।
इस शहर से जिन्दगी को छीन सकता है नहीं कोई
मौत है इसमें अगर तो जन्म की तैयारियाँ भी हैं।
कोई झोंका फिर अलावों में तपिश भर जाएगा भाई
राख तो है राख के भीतर मगर चिन्गारियाँ भी हैं।
-कमलेश भट्ट कमल
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डॉ॰ जगदीश व्योम की कविताएँ
आहत युगबोध के
आहत युगबोध के जीवंत ये नियम
यूं ही बदनाम हुए हम
मन की अनुगूंज ने वैधव्य वेष धार लिया
कांपती अंगुलियों ने स्वर का सिंगार किया
अवचेतन मन उदास
पाई है अबुझ प्यास
त्रासदी के नाम हुए हम
यूं ही बदनाम हुए हम
अलसाई कामनाएं चढ़ने लगीं सीढ़िया
टूटे अनुबंध जिन्हें ढो रही थी पीढ़िया
वैभव की लालसा ने
ललचाया मन पांखी
संज्ञा से आज सर्वनाम हुए हम
यूं ही बदनाम हुए हम
दुख नहीं तो सुख कैसा सुख नहीं तो दुख कैसा
सुख है तो दुख भी है, दुख है तो सुख भी है
दुख सुख का अजब संग
अजब रंग अजब ढंग
दुख तो है सुख की विजय का परचम
यूं ही बदनाम हुए हम
कविता के अक्षरों में व्याकुल मन की पीड़ा है
उनके लिए तो कविकर्म शब्दक्रीडा है
शोषित बन जीते हैं
नित्य गरल पीते हैं
युग की विभीषिका के नाम हुए हम
यूं ही बदनाम हुए हम
युग क्या पहचाने हम कलम फकीरों को
हम ते बदल देते युग की लकीरों को
धरती जब मांगती है विषपायी कंठ तब
कभी शिव मीरा घनश्याम हुए हम
यूं ही बदनाम हुए हम
व्योम गुनगुनाया जब अंतस अकुलाया है
खड़ा हुआ कठघरे में खुद को भी पाया है
हम भी तो शोषक हैं
युग के उदघोषक हैं
घोड़ा हैं हम ही लगाम हुए हम
यूं ही बदनाम हुए हम
-डॉ॰ जगदीश व्योम
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सन्तोष कुमार सिंह की कविता
गीत
ऐसी हवा चले नफरत के बादल सब पिघलें।
प्रीति के पाहुन तब मचलें।।
ह्रदय-सिन्धु की लहर-लहर में रंग प्यार के दीखें।
हर सुख-दुःख में भी इठलाना, हम कलियों से सीखें।।
स्वारथ का जो लेप चढ़ा तन, उसको सब बदलें।
प्रीति के पाहुन तब मचलें।।
चाहत की रीती गागर भी, सब की भर जाए।
कटुता की बूँदें बरसें तो अमृत बन जाए।।
क्रोध-अग्नि हो शान्त खुशी में, दृग बूँदें बहलें।
प्रीति के पाहुन तब मचलें।।
सौरभ से भर जाएँ दिशायें, करे किलोलें हास।
बैर उड़े आँधी के सँग-सँग , इठलाये विश्वास।।
संयम के रथ पर बैठें सब, लालच से सँभलें।
प्रीति के पाहुन तब मचलें।।
प्रेम, प्रीति की क्यारी मँहके, जग के हर कोने में।
बढ़े न कोई हाथ कहीं पर, शूलों को बोने में।।
होवे ह्रदय उदार हमेशा, हर दुःख भी सहलें।।
प्रीति के पाहुन तब मचल
-सन्तोष कुमार सिंह
मथुरा ( भारत )
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