05 February 2007

शास्त्री नित्य गोपाल कटारे के लिए

शास्त्री नित्य गोपाल कटारे के लिए
नालायक होने का सुख
इक्कीसवीं सदी के मुख में सबसे आगे प्रवेश करने की प्रतिष्पर्धा में जहाँ लोगों की भीड़ बेचैन हैरान परेशान होकर तेजी से भागी चली जा रही है। वहीं जब कोई व्यक्ति तनावमुक्त और प्रसन्न दिखाई देता है तो आश्चर्य के साथ-साथ उसके प्रति ईर्ष्या भी अनायास उत्पन्न हो जाती हैं। भला इतनी समस्याओं, इतने खतरों, और इतनी निराशाओं के बीच आदमी तनावहीन कैसे रह सकता है? जो व्यक्ति प्रात: समाचार पत्र का मुखपृष्ठ पूरा पढ़ ले वह दिन भर हँस कैसे सकता है? राजनीतिज्ञों के गैर जिम्मेदार वक्तव्य, सामूहिक हत्या या आत्महत्या के समाचार, चोरी और बलात्कार की खबरें पढ़कर कोई सभ्य नागरिक तनाव मुक्त होकर मुस्करा ले तो सचमुच आश्चर्य की ही तो बात है। ऐसे अनिश्चितता के वातावरण में भी विपन्न बुद्धि को पान की दूकान पर जब घण्टों खड़े रहकर सिगरेट के कश खींचते हुए ठहाके लगाते देखता हूँ तो उसके भाग्य पर अनायास ही जलन होने लगती है। कैसे इतनी फुरसत मिल जाती है इसे ? दूरदर्शन पर प्रदर्शित होने वाला एक भी क्रिकेट मैच नहीं छोड़ता। शाम को ताश भी खेल लेता है। बचे समय में पान की दूकान पर शहर की अत्यन्त गोपनीय घटनाओं का सूक्ष्मता से वर्णन कर श्रोताओं का मन मोह लेता है। रसिक श्रोतागण चाय पिला पिलाकर इन घटनाओं की विवेचना करवाते हैं। किस खिलाड़ी ने कितने रन बनाये, कौन अम्पायर ने किसे गलत ढँग से आउट किया, किस किस खिलाड़ी ने मैच फिक्सिंग करके कितने पैसे लिये बगैरा.....बगैरा बतलाकर वह सामान्य ज्ञान में अग्रणी होने का प्रमाण पत्र भी हासिल कर लेता है। विवाह के हर एक समारोह में द्वाराचार से लेकर पाणिग्रहण तक उपस्थित रह कर वारातियों से अधिक अकेले ही सिगरेट पी लेता है। घरधनी को छोड़कर सभी लोग उसे समाज सेवक कहते हैं।
विपन्न बुद्धि से जब हमने उसके सुखी जीवन का राज जानना चाहा तब उसने रहस्योद्घाटन के अन्दाज़ में मुस्कराते हुये कहा- "देखो भाई ! आज के जमाने में जो जितना लायक व्यक्ति है उतना ही दुखी, और जो जितना नालायक है उतना ही सुखी है।"....... अब आप को ही देख लीजिये आप कवि हैं, लेखक हैं, संगीतज्ञ भी हैं, दो-तीन भाषाओं के भी ज्ञाता हैं इसीलिये सैकड़ों लोग आपके पीछे हाथ धोकर पड़े रहते हैं। मन को चैन नहीं, शरीर को आराम नहीं और हमेशा दुखी। और एक हमें देखिये हम पूरी तरह नालायक हैं हमें कोई माँगने पर भी सेवा का अवसर नहीं देता, इसलिये हम चैन की वंशी बजाते हैं।
बचपन से ही मुझे नालायक की उपाधि मिल चुकी है। घर में आये मेहमानों के सामने भी मैंने अपने पिता जी से बताया कि सेठ ने चाय की प>ाी देने से मना कर दिया है क्योंकि आप नक पुरानी उधारी चुकता नहीं की है। बस फिर क्या था.........पिता जी ने मुझे महानालायक की उपाधि से अलंकृत कर दिया और घर में निर्देश दे दिया कि इस नालायक से कोई काम न करवाया जाय। तभी से मैं घर के कामकाज से मुक्त मस्त खेलता रहता था। मेरी यह ख्याति पिताजी के मार्फत दूर-दूर तक फैल गई थी। वे मेरा परिचय देते वक्त नालायक शब्द कभी नहीं भूलते थे। उस समय मुझे बुरा लगता थाश् क्योंकि तब मैं नहीं जानता था कि नालायकियत ही सुख का मूल होती है। गाँव के प्रौढ़ और स्कूल के शिक्षक मेरे नालायक पने के कारण दूसरे बच्चों की तरह बेगार नहीं करवाते थे। फलस्वरूप विद्यार्थी जीवन आनन्द से बीत गया। नौकरी में आया तब मेरी समझ में भलीभँति आ चुका था इसलिये प्रारम्भ से ही मैंने अपने आप को नालायक सिद्ध करना शुरू कर दिया। जो भी काम मिलता उसे इस तरह करता कि काम करवाने वाले वर्षों तक पछताते रहते और कहते.....किस नालायक से पाला पड़ा है.......। एक बार साहब ने हमें विदेशी नस्ल का कु>ो का पिल्ला लेने भेजा, हमने पाँच हजार रुपए में सुअर का पिल्ला लाकर साहब के घर बाँध दिया और उन्हें समझा दिया कि यह नई विशेष प्रजाति का कु>ाा है जो बड़ा होकर बहुत भव्य और खूँखार दिखेगा। बेचारे साहब कई दिनों तक कु>ो के भरोसे सुअर के बच्चे की सेवा करते रहे। कुछ दिनों बाद उसके आहार-विहार के लक्षणों से जब उन्हें असलियत का पता चला, तो उन्होंने मुझे शासकीय स्तर पर महानालायक का अवार्ड दे डाला। तभी से मुझसे साहब लोग निजी कार्य कराने से डरने लगे।
एक बार हमारे साहब ने मेरी ड्यूटी रेस्ट हाउस में लगाई। बोले- "विपन्नबुद्धि अपना उल्लू का पट्ठा बड़ा साहब आ रहा है, तुम उसकी व्यवस्था करना।" हमने कहा ठीक है। बड़े साहब जब रेस्ट हाउस में पधारे तो हमने उनसे पूछा-
" साहब आप तो अकेले ही दिख रहे हैं? हमारे साहब तो कह रहे थे ......कोई उल्लू का पट्ठा भी आ रहा है।" फिर क्या था बड़े साहब ने छोटे साहब की फोन पर क्या खिंचाई की..........और मुझे ड्यूटी से मुक्त कर दिया। तब से मैं पूरे डिपार्टमेंट में अत्यन्त नालायक के रूप में जाना जाने लगा और फिर कभी किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिये मुझे कभी याद नहीं किया गया। मैं आराम से शासकीय समस्त सुविधाओं का उपयोग करते हुये ताश खेल रहा हूँ। अब रही बात घर की, घर में अपने आप को नालायक सिद्ध करना थोड़ा कठिन किन्तु हम्माली से बचने का एकमात्र उपाय होता है। इसके लिये मैं पहले से ही सतर्क था। शादी के समय अपने सास ससुर को रोते हुये देखकर मैंने उन्हें समझाया था कि- "आप बिल्कुल चिन्ता न करें आपकी बच्ची बैसी ही मेरी बच्ची।" सुनकर मेरी पत्नी और उसके माता-पिता रोना धोना छोड़कर मेरी नालायकियत पर चिन्ता करने लगे थे। पत्नी के हृदय में मेरे नालायक होने की छवि प्रारम्भ से ही बन गई थी। रही सही कसर सड़ी गली सब्जियाँ महँगे भाव में लाकर और किराने की दूकान से ग्राहकों द्वारा लौटाया गया सामान लाकर पूरी कर दी थी। इस तरह मैं नम्बर एक का नालायक पति सिद्ध हो गया। परिणाम स्वरूप यह सारी हम्माली पत्नी ने स्वयं अपने अधिकार क्षेत्र में लेली। अब इससे ज्यादा और सुख क्या होता है?
मेरी तरह नालायक प्रजाति के लोग हर एक क्षेत्र में पाये जाते हैं। यह प्रजाति दिनोंदिन अपनी संख्या में वृद्धि कर रही है और बिना कुछ काम किये आराम से सुखी जीवन व्यतीत कर रही है। इसलिये मैं आप सब से भी कहता हूँ कि यदि सुखी होना है तो नालायक बन जाइये।

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चिरांेजीलाल सरपंच बने
चिरोंजी लाल जी विपन्नबुद्धि के बचपन के मित्र हैं। विपन्नबुद्धि हमेशा उनके विषय में चिन्तित रहता था, कहता था....... क्या होगा इसका......और इसके बच्चों को ? चिरोंजी लाल गाँव के सर्वश्रेष्ठ निठल्ले आदमियों मेंेंें जाने जाते थे। बच्चों की संख्या बढ़ाने के अलावा उन्होंने जीवन में कोई रचनात्मक कार्य नहीं किया था, हालांकि जाने अनजाने उनसे विध्वंसक कार्य जरूर हो जाया करते थे। कोई काम न होने से वे दिन भर इधर-उधर घूमते हुए गाँव भर के गोपनीय समाचारों में कुछ समाचार मिलाकर प्रचारित-प्रसारित करते रहते थे। परिणाम स्वरूप लड़ाई-झगड़ा आम बात थी। इसलिए सारे गाँव के लोग- "काम के न काज के ढाई मन अनाज के " रूप में उनका परिचय देते थे। कुछ लोग उन्हें नारद जी के नाम से भी पुकारते थे। यहाँ तक कि उनकी पत्नी के भी उनके वारे में स्पष्ट विचार थे, वे कहती थीं- "कछू बने न धरे ऊसई आधे-आधे होउत हैं।" सलाह देने में वे माहिर थे। मारपीट और झगड़ों के प्रकरणों में अक्सर दोनों पार्टियों को बिना माँगे सलाह देना अपना कर्तव्य समझते थे, क्योंकि झगड़े का मुख्य कारण तो वे ही होते थे। दण्ड संहिता की गढ़ धाराएँ, जिन्हें वकील तक ठीक से नहीं समझ पाते, उन्हें कंठस्थ थीं। गालियाँ देने के साथ कपड़े फाड़ने में कौन सी धारा लगती है......आदि आदि समझाते हुए उन्हें परमानन्द की अनुभूति होती थी। शवयात्रा और मृत्युभोज में उनकी उपस्थिति अवश्य दर्ज होती थी, ठठरी बाँधने से लेकर कपाल क्रिया तक की सारी विधियों के विशेषज्ञ होने के कारण इन अवसरों पर लोग उन्हें अवश्य याद करते थे। "हम हैं न" ये उनका तकिया कलाम था, किसी भी समस्या के समाधान में "हम हैं न" कहने की उनकी आदत थी, हालांकि इस तकिया कलाम के प्रयोग से एक बार पिट भी चुके थे, क्योंकि एक मृत व्यक्ति की पत्नी को समझाते हुए वे बोल पड़े थे- "चिन्ता मत करो......हम हैं न" ।
आज विपन्नबुद्धि चिरोंजीलाल की ओर से निश्चित हो गया था, क्योंकि वे "घूरे के भी दिन फिरते हैं" मुहावरे को चरितार्थ करते हुए गाँव के सरपंच बन गए थे। अब वे ही गाँव के भाग्यविधाता हो गए हैं। भला हो हमारी सरकार का जिसमें त्रिस्तरीय पंचायत प्रणाली लागू करके "दिन दूने रात चौगुने" बढ़ते हुए निठल्लों को रोजगार का अवसर प्रदान कर दिया है। भगवान की कृपा से हमारी चुनाव प्रणाली भी इतनी ब्रह्मज्ञान की तरह इन्द्रियों से परे है कि कब, कौन, कैसे? जीत जाता है? अच्छे अच्छे विशेषज्ञ भी नहीं समझ पाते। मतदाता भी "सियाराम मय सब जग जानी" की भावना से डाकू को सांसद, हत्यारे को विधायक, किन्नर को महापौर और चिरोंजी लाल जैसे निठल्ले को सरपंच चुन लेते हैं और फिर रोते रहते हैं। शायद इसीलिये जनता को जनार्दन कहते हैं। जनता जनार्दन गधे और घोड़े को समान दृष्टि से देखते हुए सभी को समान अवसर प्रदान करती है, किन्तु आश्चर्य की बात है कि किसी को भी चुने, काम सब एक सा ही करते हैं। पद पर बैठते ही गद्दी से आदमी रातोंरात महान बन जाता है। मीडियारूपी पारस के संयोग से सड़ा गला लोहा भी सोने के माफिक चमकने लगता है। अब चूँकि चिरोंजी लाल भी सरपंच के पद पर बैठ गए हैं सो मीडिया भी उनके आस-पास घूमने लगा है। पत्रकार चिरोंजी लाल के जन्म से लेकर आज तक का इतिहास गढ़ने में लग गए, कोई उन्हें जमीन से जुड़ा नेता बताता, कोई गरीबों का हमदर्द कहता, कोई उन्हें दलितों का मसीहा सिद्ध करता। चिरोंजी लाल के नामकरण के सम्बन्ध में कुछ लोगों का कहना है कि उनके पिता श्री ने सन्तानोत्पि>ा की औसत आयु गुजर जाने के बाद किसी की कृपा से एक मात्र पुत्रोत्पि>ा की खुशी से जीवन में पहली बार चिरोंजी बाँटी थी, इसीलिये इनका नाम चिरोंजी लाल पड़ा। ज्योतिषी लोग उनकी कुण्डली बताकर उसमें राजयोग प्रबल होने की भविष्य वाणी करते हुए भविष्य में विश्व नेता बनने की संभावना व्यक्त करने लगे। सभी को उनके सारे दुर्गुण सद्गुण नजर आने लगे। चिरोंजी लाल जी में भी एकदम गजब का आत्मविश्वास आ गया। उनके हृदय रूपी सूखे कुएँ में पता नहीं कहाँ से विवेक रूपी पानी की मोटी झिर निकल पड़ी कि अचानक ये कबड्डी से लेकर वेदान्त जैसे गहन विषयों पर धाराप्रवाह बोलने लगे। प्रत्येक समारोह की अध्यक्षता करना तो उनका जन्म सिद्ध अधिकार हो गया है। राष्ट्रीय नीतियों की व्याख्या, भारतीय अर्थ व्यवस्था में सुधार, विश्व व्यापार, संगठन, उदारीकरण आदि पर उनके भाषण सुन सुनकर जनता "चिरोंजी लाल संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ है।" के नारे लगाती है। शिक्षा के लोक व्यापीकरण, रोजगार गारण्टी योजना, गरीबी उन्मूलन आदि विषयों पर उनके विचार समाचार पत्रों के मुखपृष्ठ पर आने लगेे। चारों ओर "चिरोंजी लाल जिन्दाबाद" के नारे लगने लगे........और देखते ही देखते एक और महान नेता आपके सामने हैं चिरोंजी लाल।
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किन्नर विजय जुलूस
वैसे तो जुलूस निकलना अपने देश में कोई आश्चर्य की बात नहीं है, किन्तुु यह जुलूस कुछ अलग ही ढँग का होने के कारण मेरा ध्यान आकर्षित कर रहा था। एक खुली जीप में अपनी पारंपरिक वेशभूषा में सजे धजे, फूल मालाओं से लदे किन्नर विजय श्री की मुद्रा में हाथ हिला-हिलाकर जनता को धन्यवाद दे रहे थे। उनके आगे-आगे एक विशाल जन समूह तालियाँँ बजा-बजाकर नाच रहा था। विपन्न बुद्धि इस जुलूस का मार्ग दर्शक था, वह ढोलक बजाते हुए गा रहा था-
"मेरे अँगने में अब तुम्हारा ही काम है, जो हें नाम वाले सभी तो बदनाम हैं।" बीच-बीच में रुक-रुककर लगाये जाने वाले नारे भी कुछ कम चि>ााकर्षक नहीं थे-
देश का नेता कैसा हो?.....शबनम मौसी जैसा हो।
किन्नर तुम संघर्ष करो........हम तुम्हारे साथ हैं।
सफल नहीं नर-नारी है.......अब किन्नर की बारी है।
नर-नारी सब भ्रष्टाचारी........किन्नर अब अपनी लाचारी।
किन्नर अपना नेता होगा........भाई भतीजावाद न होगा।
- जोशपूर्ण नारों के साथ रोषपूर्ण ढँग से हवा में लहराते हाथों से स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि वे शवनम मौसी की जीत पर इतने प्रसन्न नहीं हैं, बल्कि उन दो महान दिग्गजों को चारो खाने चि>ा कर राजनैतिक पार्टियों के गालों पर तमाचा मार रहे हों, जो जन-भावनाओं से खिलवाड़ करते हुये गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। शबनम मौसी के चेहरे पर भी गजब का आत्मविश्वास झलक रहा था। वे भीड़ के ऊपर अपनी पहनी हुईं मालाएँ फेंक कर आशीर्वाद की मुद्रा में वरदहस्त दिखाकर मुस्करा रहीं थीं, मानो कह रही हों
चिन्ता मत करो अब सब ठीक हो जायेगा।
मैंने विपन्न बुद्धि को बुलाया और पूछा- "विपन्न बुद्धि! तुम इतने खुश हो रहे हो? जो किन्नरों की तरह कमर मटका-मटकाकर नाच रहे हो?"
वह बोला- "देखते नहीं हो.....शबनम मौसी विधायक का चुनाव जीत गईं हैं।"
"जीत गईं हैं तो क्या हुआ?"- मैंने उपेक्षाभाव से कहा। भारतीय चुनाव में कब कौन जीत या हार जाए, कहा नहीं जा सकता।
"नहीं नहीं शबनम मौसी की जीत कोई अप्रत्याशित जीत नहीं है.......यह तो प्रजातंत्र की जड़े गहरी हो जाने की सूचना है।"- विपनन बुद्धि ने बड़ी गंभीर मुद्रा बनाते हुए हमें समझाया।
हमने कहा कि विपन्न बुद्धि! सच सच बताओ कि दो राष्ट्रीय दलों के अनुभवी नेताओं के होते हुए तुमने शबनम मौसी को क्यों चुना?.....विपन्न बुद्धि ने कमर से ढोलक छोड़ते हुये कहा देखो शबनम मौसी को हम लोगों ने बहुत सोच समझकर चुना है। इसके पाँच कारण हैं-
पहला कारण है कि वे वास्तविक अल्पसंख्यक हैं। हमारे देश में अल्पसंख्यकों के नाम पर कई लोग सरकारी लाभ लेते हुए बहुसंख्यक होते जा रहे हैं। जब कि प्राकृतिक रूप से मनुष्यों में कुल तीन ही जातियाँ हैं- स्त्री, पुरुष और किन्नर।......स्त्री और पुरुष दोनों ही बहुसंख्यक हैं, किन्तु किन्नर अल्पसंख्यक हैं। उनका भी समुचित प्रतिनिधित्व होना चाहिये। दूसरा कारण है, उनका सचमुच का सेक्युलर होना। हमारे सारे नेता सेक्युलर सेक्युलर चिल्लाते तो बहुत हैं पर राजनीति में धर्म का इस्तेमाल कर धर्मों के बीच वैमनस्य बनाने में उनकी बड़ी भूमिका होती है, किन्तु किन्नर सही मायने में धर्म निरपेक्ष होते हैं। वे हिन्दू-मुसलमान में कोई भेद नहीं करते। सभी के आँगन में प्रेम पूर्वक नाचते-गाते हैं। सभी की खुशियों में बराबर के भागीदार होते हैं।
तीसरा कारण है भाई-भतीजावाद। हमारे देश में अभी तक जितने भ्रष्टाचार के या अपराधों के प्रकरण सामने आये हैं, उनमें कहीं न कहीं नेताओं के भाई भतीजों का हाथ होना पाया गया है। जितना ऊधम मंत्री नहीं करते उतना उनके लड़के करते हैं। इसलिये ' न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी` ......शबनम मौसी का न कोई भाई न भतीजा और उनसे भी कोई खतरा नहीं। भाई भतीजावाद समाप्त।
चौथा कारण है, सुरक्षा खर्च की बचत। अभी देखा जा रहा है कि हमारी आधी पुलिस तो नेताओं एवं उनके रिश्तेदारों की सुरक्षा में ही लगी रहती है। इसी पर करोड़ों का खर्च होता है। शबनम मौसी को किसी सुरक्षा गार्ड की जरूरत नहीं है।
पाँचवां कारण है- भ्रष्टाचार का समूल विनाश। कहते हैं कि एक बार भ्रष्टाचार ने बड़ी तपस्या करके लक्ष्मी जी को प्रसन्न किया और अजर अमर होने का वरदान माँगा। लक्ष्मी जी ने अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुये यह वरदान दिया- ' हे वत्स! तुम्हें न कोई माता मार सकेगी और न पिता, न पत्नी, गृहस्थ और न ही ब्रह्मचारी, न विधवा और न विधुर.....यहाँ तक कि दुनिया की न कोई स्त्री मार सकेगी और न पुरुष। तब से भ्रष्टाचार दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करते हुये निर्भय रूप से विचरण कर रहा है। उसे समाप्त करने के लिये ही अब हमें किन्नरों का सहारा लेना होगा। इतिहास गवाह है कि जो काम बड़े बड़े शूरवीर नहीं कर सके उसे किन्नरों ने कर दिखाया है। महाभारत में भी युद्ध जीतने के लिये किन्नर शिखण्डी को सेनापति बनाना पड़ा था, तभी विश्व विजेता भीष्म पितामह को परास्त किया जा सका था।

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गिद्ध भोज की व्यथा कथा
विपन्न बुद्धि रात के ग्यारह बजे मेरे मकान के सामने सड़क पर अँधेरे में खड़े होकर बुला रहा था, उसका आग्रह था कि मैं वहीं सड़क पर आकर उससे बात करूँ। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि बिना किसी महत्वपूर्ण कार्य के अनावश्यक रूप से भी बिना घण्टी बजाये कमरे में घुसकर सोफा पर पसर जाने वाले विपन्न बुद्धि को आखिर क्या हो गया है, जो गेट के पास भी नहीं आ रहा है, और सड़क पर ही बात कर लेना चाहता है। मैंने अपनी इस आंतरिक परेशानी को छिपाते हुये कहा- "विपन्न बुद्धि शरीफ लोगों की तरह अन्दर आकर बैठो, बाहर अँधेरे में खड़े होकर बात करना उचित मालूम नहीं होता। और तुम एक भले आदमी न भी हो, किन्तु समाज में समझे तो जाते हो। इसीलिये अन्दर आकर बात करो।"
"नहीं यार! ऐसी बात नहीं है, मैं इस समय अन्दर आकर बैठने की स्थिति में नहीं हूँ, इसीलिये तो बाहर खड़ा हूँ।"- विपन्न बुद्धि ने अपनी असमर्थता बताते हुये स्पष्टीकरण दिया। मुझे समझते हुये देर नहीं लगी कि वह निश्चित रूप से किसी शवयात्रा से लौट रहा है, क्योंकि ज्यादातर लोग किसी का अन्तिम संस्कार करके अन्य किसी के घर नहीं जाते।.....किन्तु इतनी रात में शवयात्रा का औचित्य मेरी समझ में नहीं आ रहा था। मैंने आश्चर्य से पूछा- "किसी शव यात्रा में गए थे?"
"अरे नहीं यार! शव यात्रा नहीं मैं एक विवाह समारोह पर आयोजित गिद्ध भोज में अपनी दुगर्ति कराकर लौटा हूँ। मेरे सारे कपड़े दाल, कढ़ी और सब्जी में लिसे हुये हैं। इस समय किसी सभ्य आदमी के घर में बैठने लायक नहीं बचा हूँ।" -विपन्न बुद्धि की बातों से गिद्ध भोज की दुर्दशा स्पष्ट झलक रही थी।
" अरे तुम ने भी हद कर दी........थोड़ी सी दाल कपड़ों मे क्या लग गई, इतने शरमा रहे हो........और वह भी हम से?.......हमने तो तुम्हें कई बार कई रंगों में रँगा देखा है। मैं चुल्लू भर पानी देता हूँ.......कर लो साफ कपड़े और बैठो आराम से।"- मैंने समस्या का हल सुझाते हुये बाहर का बल्व जलाया। सामने विपन्न बुद्धि की हालत देखकर मैं ठहाका लगाने से अपने आप को चाहते हुए भी नहीं रेोक सका। वह गिद्ध भोज में बनाये जाने वाले नाना प्रकार के व्यंजनों से आपादमस्तक भिड़ा था। उसके काले बालों पर दही गिर जाने से जो सफेद लाइन बनी थी वह स्व० श्रीमती इन्दिरा गाँधी जी का स्मरण करा रही थी। लाल मिर्च युक्त सब्जी का शोरवा आँखों के पास से बह जाने से उसकी आँखें भी लाल हो गईं थीं। कपड़े तो उसके देखने लायक थे। कुर्ता के कालर से लेकर आस्तीन तक, ऊपर से नीचे तक, दाएँ से वाएँ सभी ओर कोई न कोई बफे सिस्टम का आइटम लगा था। यहाँ तक कि पाजामें के निचले हिस्से में गुलाब जामुन की चाशनी लगी होने से चींटियाँ एकत्रित हो गईं थीं। पूरी स्थिति देखने पर उसके अँधेरे में खड़े होन े का रहस्य समझ में आ गया था। इतनी बुरी हालत की तो हमने सचमुच में कल्पना नहीं की थी।
हमने विपन्न बुद्धि से पूछा- देखो भाई! भोजन मुँह से लेकर हाथ तक तो कहीं भी गलती से गिर सकता है, किन्तु यह सिर के ऊपर गिरना हमारी समझ में अभी भी नहीं आ रहा है। विपन्न बुद्धि ने अपने सिर पर हाथ फेरते हुये इसका रहस्य बतलाया- मित्र जब में एक टेबल पर जमीं भोज सामग्री को लूटते हुए सैकड़ों पुरुष, स्त्रियों और बच्चों के बीच में घुसा तब इस तरह के भोज की तकनीकि को अच्छी तरह से जानने वाली कद से उच्च वर्ग की एक महिला ने अपनी प्लेट को धूप गढ़ की चोटी की शक्ल में सजाकर बाहर निकलने का असफल प्रयास किया। चूँकि प्लेट को सही सलामत लेकर निकलना लगभग असम्भव था, ऐसी स्थिति में उसने मेरे सिर के ऊपर से प्लेट निकालने की कोशिश की और परिणाम आपके सामने है। सुनकर मेरी समझ में पूरी तरह से आ गया था। क्योंकि ऐसे दृश्य मैंने भी कई बार देखे थे। किन्तु पायजामे की स्थिति फिर भी रहस्यपूर्ण बनी हुई थी। पूछने पर विपन्न बुद्धि झल्लाते हुए बोला-
"अब आप ही बतलाइये! ऐसी भोज प्रतियोगिता में बेचारे बच्चे क्या करें? वे हमारे पैरों के बीच से प्लेट लेकर निकल रहे थे, तब पायजामा कैसे सुरक्षित रहेगा?" हमने कहा- कोई बहुत बड़ी बात नहीं हुई है; ऐसा तो होता ही रहता है। दूसरों की नकल करने में फजीहत तो होती ही है। हमें आखिर अमेरिका, ब्रिटेन के साथ कदम मिला-मिलाकर चलना है, तो ये सब तो भोेगना ही पड़ेगा। खैर आओ तुम किसी स्टूल पर बैठ जाना, जिसे बाद में धो लिया जाएगा। हमने उसे सांत्वना देते हुए आग्रह किया।
"नहीं भाई! क्या आज मुझे भूखे ही सुलाओगे? और थोड़ी देर होगी तो घर पर भी खाना नहीं मिलेगा।" विपन्न बुद्धि ने न बैठ पाने का कारण बताया।
"तो इतनी दुर्गति के बाद भी भोजन नहीं कर पाये क्या?" मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई थी।
"जी हाँ!.....ऐसी अपमान जनक व्यवस्था में कोई शरीफ आदमी भोजन करने के वारे में सोच भी कैसे सकता है। कहा भी गया है- 'भोजन और प्रेम एकान्त और शान्त वातावरण में करना उचित होता है। अन्यथा उसके दीर्घकालीन दुष्परिणाम होते हैं।` इसलिए मैं तो इस गिद्धभोज में कभी भोजन करता ही नहीं हूँ। मैंने दूल्हे के बाप को बहुत समझाया था कि देखो मैं पूड़ी-पराठे कतई नहीं खाता हूँ; डॉक्टर ने साफ मना कर रखा है। परन्तु वह तो लोगों को हाथ में प्लेट लेकर भिखमंगों की तरह घूमते देखकर मजा ले रहा था। हम से भी दुराग्रह करने लगा.......बोला- "अरे आदरणीय आप जैसे लोगों के लिये ही मैंने रोटियाँ भी बनवायीं हैं। आप जाइये तो........यह स्वरुचि भोज है........अपनी रुचि के अनुसार जो अच्छा लगे; जितना लगे; खइये।" मैं उसकी बातों मे आ गया; उठा लीं दो रोटियाँ और लगा दाल तलाशने.........पर दाल तो दाल.......हाथ की रोटियाँ और प्लेट भी कहाँ गईं? मुझे नहीं मालूम.........बड़ी मुश्किल से निकल कर इस हालत में आ सका। ऊपर से चुंगी नाके के नाकेदार की तरह खड़ा दूल्हे का बाप लिफाफा लेते हुए मुस्कराकर पूछ रहा था- "खाना कैसा लगा?"
हमने कहा- "दिख तो रहा है जैसा लगा है।"
और विपन्न बुद्धि मन ही मन कुछ बुदबुदाते हुये शीघ्रता से अपने घर की ओर चला गया।
धन्य रे गिद्ध भोज!!
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अथ सरकार जिज्ञासा
कुछ दिनों से सरकार के विवादास्पद निर्णयों से क्षुब्ध होकर विपन्न बुद्धि सरकार की तलाश में गाँव से राजधानी तक जूते घिस आया, पर उसे सरकार नहीं मिली। वह चाहता था कि सरकार को अपना दुखड़ा सुनाऊँ। उसे समझाऊँ, पर जहाँ भी गया वहाँ या तो सरकार के नौकर मिले, या फिर सरकार के प्रतिनिधि मिले, कहीं सरकार के सचिव मिले, कहीं सरकार के मंत्री मिले। यहाँ तक कि मेरी सरकार कहने वाले सरकार के मालिक भी मिले , परन्तु स्वयं सरकार के साक्षात दर्शन नहीं हो सके। सरकार की तलाश में भटकता हुआ थका हारा विपन्न बुद्धि स्वामी सर्वज्ञानन्द जी की शरण में पहुँचा और बोला-
"हे स्वामी जी! आप भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों की बातें जानते हैं, आप सर्वज्ञ हैं। कृपया मेरी जिज्ञासा शान्त करने की कृपा करें। हमारे देश में सरकार नाम की कोई वस्तु है अथवा नहीं? यदि है तो वह कहाँ रहती है? उसका स्वरूप क्या है? वह कैसे चलती है? कैसे काम करती है? क्या खाती है? कैसे सूँघती है? कैसे बोलती है?........कृपा करके विस्तार पूर्वक बताने का कष्ट करें।"
स्वामी जी ने वक्रासन में बैठकर अपनी आँखें बन्द कीं और गम्भीर स्वर में बोले- वत्स! तुमने अत्यन्त गूढ़ प्रश्न करके हमें संकट में डाल दिया। हमारे प्रजातांत्रिक देश की सरकार को समझना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। यह इन्द्रियों का विषय नहीं है। सरकार को प्रत्यक्ष पकड़ा नहीं जा सकता, देखा भी नहीं जा सकता और मारा पीटा भी नहीं जा सकता। इसीलिये वह 'परम स्वतंत्र न सिर पर कोई` के अनुसार स्वच्छन्दता पूर्वक कार्य करती है। अब मैं तुम्हारे प्रश्नों का क्रमबार उ>ार दे रहा हूँ, ध्यान पूर्वक सुनो- तुम्हारा पहला प्रश्न है कि सरकार है या नहीं?
सरकार के अस्तित्व के विषय में हमारे देश में तीन विचार धाराएँ प्रचलित हैं। एक वर्ग वह है जिसे नास्तिक कहा जा सकता है। वह सरकार के अस्तित्व को कतई स्वीकार नहीं करता। वह स्वयं अपने आप को संप्रभुता सम्पन्न मानता है, उसके पास अपना एक पूरा प्रशासनिक तंत्र है। अपनी सेना है, अपनी अदालत है। वह जब चाहे किसी गाँव को जलाकर राख कर दे। बस में से यात्रियों को उतार कर कतार में खड़े करके गोली मार दे। किसी भी सभ्य नागरिक को घर से खदेड़ कर दर दर की ठोकरें खाने को मजबूर कर दे। और तो और संतरी से लेकर मंत्री तक की गर्दन काटकर खुलेआम घूमने वाला यह वर्ग सरकार के अस्तित्व पर एक जबरदस्त प्रश्न चिह्उा लगाता है उसका कहना है कि यदि सरकार होती तो हमारा कुछ बिगाड़ती। इस तरह नित्य नए अपराध करके यह वर्ग सरकार का न होना सिद्ध करता है।
दूसरा वह वर्ग है जिसे आस्तिक कहते हैं। वह वर्ग मानता है कि सरकार कहीं न कहीं है जरूर, बिना सरकार के इतना बड़ा देश चल नहीं सकता। यह वर्ग सरकार द्वारा किये गए अच्छे बुरे निर्णयों को अपने भाग्य से जोड़ता है। इस वर्ग को पूरा विश्वास है कि सरकार की बिना इच्छा के प>ाा भी नहीं हिल सकता। उनका मानना है कि हत्या, बलात्कार, हिंसा आदि भी उसी की इच्छा से होता है। यह अलग बात है कि हम जैसे साधारण लोग इसका कारण नहीं समझ पाते। सरकार जो भी करती है राष्ट्रीय हित में ही करती है।
तीसरा जो वर्ग है वह संदेह वादियों का समूह है। हमारे देश में यही सबसे बड़ा वर्ग है। यह वर्ग सरकार के समस्त कार्यों को सन्देह की दृष्टि से देखता है। सरकार है या नहीं इसमें भी इसे सन्देह बना रहता है।
दूसरा प्रश्न है 'सरकार का स्वरूप क्या है?` इस वारे में भी मतभेद हैं। कुछ लोग इसे निराकार मानते हैं। इसे इन्द्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता मात्र अनुभव किया जा सकता है। जो लोग श्रद्धा पूर्वक सरकारी मन्दिरों के चक्कर लगाते हैं, वे सरकारी प्रसाद पाते हैं। कुछ लोग सरकार को ब्रह्म की तरह सर्व व्यापक मानते हैं। उनका कहना है कि शहर से लेकर गाँव तक सरकार ही सरकार व्याप्त है। केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार, जिला सरकार, ग्राम सरकार और आगे मुहल्ला सरकार, बार्ड सरकार आदि अनेक सरकार ही सरकार दिखई दे रही है।
अब सरकार चलती कैसे है? इस सम्बन्ध में गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-
बिनु पद चलै, सुनै बिनु काना।
कर बिनु कर्म करे विधि नाना।।
अर्थात् सरकार बिना पैरों के चलती है, कभी कभी गिर भी जाती है, फिर भी काम चलाऊ बनी रहती है। कान न होते हुए भी अपने काम की बात सुन लेती है, किन्तु उसे दीन दुखियों की पुकार सुनाई नहीं पड़ती, वह हाथ न होते हुए भी नाना प्रकार के कर्म करती है।
वह खाती क्या है? इस का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
आनन रहित सकल रस भोगी।
बिन वाणी वक्ता बड़ जोगी।।
अर्थात् सरकार बिना मुँह के समस्त पदार्थों को खाती है। सारे रसों का उपभोग करती है। न खाने योग्य वस्तुएँ भी खा जाती है। किन्तु मुख न होने से खाना सिद्ध नहीं किया जा सकता है।
इसलिये हे विपन्न बुद्धि! तुम सरकार की तलाश करना बन्द करके अपनी आत्मा में झाँको। सरकार तुम्हें अन्दर दिखाई देगी। इस सम्बन्ध में महात्मा कबीर दास जी ने कहा है-
तेरा साईं तुज्झ में ज्यों पुहुपन में बास।
कस्तूरी का मृग ज्यों फिर फिर ढूँढ़े घास।।
इसीलिए तुम बाहर न भटक कर अपने अन्दर देखो। तुम्हें सरकार अपने आप में दिखेगी।
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कीचड़ उछालना हमारा राष्ट्रीय खेल
कीचड़ उछालना हमारा सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रीय खेल है। नेता हो या अभिनेता, कलाकार हो या साहित्यकार, चित्रकार हो या पत्रकार, अधिकारी हो या चपरासी, गृहस्थ हो या संन्यासी, श्रमजीवी हो या बुद्धिजीवी, अमीर हो या गरीब कीचड़ उछालने के लिये सदैव एक पैर पर खड़े रहते हैं। कीचड़ उदालने की परम्परा हमारे देख में आदिकाल से निर्विरोध चली आ रही है। जहाँ कहीं किसी को कीचड़ दिखी और सामने कोई साफा सुथरा व्यक्ति दिखा तो फिर कीचड़ उछालने का मोह हम नहीं छोड़ पाते। इस खेल में हमारा देश आज भी अव्बल है। पहले से ही कीचड़ में सने व्यक्ति पर कीचड उछालने में मजा नहीं आता। इसलिए हमें किसी बेदाग, ऊपर से नीचे तक स्वच्छ व्यक्ति की तलाश होती है। कीचड उछालने वाला कीचड उछाल कर एक तरफ हो जाता है फिर काम शुरू होता है उन लोगों का जो पहले से ही कीचड में लथपथ होते हैं और उस साफ सुथरे आदमी को देखकर अपने आप को बदशक्ल मानते हुए ग्लानि का अनुभव कर रहे होते हैं। वे जोर जोर से चिल्लाने लगते हैं! ' देखो वह कितना गन्दा आदमी है.......कितना बदसूरत है....।`
जिस पर कीचड उछाल दी जाती है वह गाली बकता है। इसे एक षड़यन्त्र बताता है और भविष्य में कीचड न उछाली जावे इसके लिये कोई व्यवस्था बनाने की बात कहता है, किन्तु उसकी बात कोई नहीं सुनता। कोई नहीं जानना चाहता कि यह कीचड आयी कहाँ से? किसने उछाली? इसका उद्देश्य क्या है? आखिर इससे लाभ क्या हुआ? किसे हुआ? आदि विषयों पर न तो कोई सोचता है और न ही विचार करना चाहता है। सभी गन्दे हैं, सभी बदशक्ल हैं, कोई साफ नहीं है......वस यही सोचकर अपनी हीन भावना से उबरने की कोशिश करते हैं।
विपन्न बुद्धि एक बार अपने मित्रों के साथ रेल में सफर कर रहा था । जैसा कि भारतीय रेलों में अक्सर होता ही रहता है। शीट पर बैठने के मामले में एक पहलवान टाइप आदमी से कहासुनी हो गई। पहलवान ने आव देखा न ताव विपन्न बुद्धि को दो तमाचे रसीद कर दिये। उसके मित्रों ने विपरीत परिस्थिति देखते हुए चुप ही रहना ठीक समझा। विपन्न बुद्धि कुछ देर सोचता रहा, फिर अपनी बाँहें चढ़ाकर पहलवान से बोला- देखो मिस्टर! मुझे मारा तो मारा परन्तु मेरे इन मित्रों को हाथ भी लगाया तो मुझसे बुरा कोई न होगा। फिर क्या था दो दो तमाचे मित्रों पर भी जमा दिये। और फिर विपन्न बुद्धि से बोला- 'कर अब क्या करता है।`
विपन्न बुद्धि मुस्कराते हुए बोला- भाई साहब! यदि मैं कुछ कर सकता होता तो पहले ही नहीं कर दिया होता?
"फिर इन बेचारों को क्यों पिटवाया?" पहलवान ने आश्चर्य से पूछा।
विपन्न बुद्धि ने इसका रहस्य खोलते हुए बताया- देखो भाई! मैं अकेला पिटता तो ये लोग हँसी उड़ाते......अब जब सभी पिट गए तो कोई किसी की हँसी क्यों उड़ायेगा? ठीक यही मनोवृि>ा इन कीचड़ उछालने वालों की होती है। रोज रोज के इस कीचड़ उछाल खेल से तंग आकर हमारे प्राचीन बुद्धिजीवियों ने इस खेल के लिये एक निश्चित समयावधि तय करने की कोशिश अवश्य की, किन्तु वे असफल रहे। उन्होंने व्यवस्था दी थी कि होली के समय धुलेंडी से रंग पंचमी तक जो जहाँ चाहे जी भर कीचड़ उछाल ले और "बुरा न मानो होली है" कह दे। इसमें किसी का कोई नुकसान न होगा। और लोगों की कीचड़ उछालने की इच्छा भी पूरी हो जायेगी। इस अवधि में सभी लोग कीचड़मय वातावरण के लिये मानसिक रूप से तैयार रहते हैं। बुद्धिजीवियों के इस प्रतिबन्ध को हमारी प्रेमी जनता ने यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि इतने प्रिय खेल को समय सीमा में बाँधना हमारे मौलिक अधिकार का हनन है।
कीचड़ मुख्य रूप से सबसे आवश्यक महाभूत जल और मिट्टी से निर्मित होती है। इसी कीचड़ को सद्भावना पूर्वक शरीर पर लेपन किया जाये तो यह औषधि का भी काम करती है। प्राकृतिक चिकित्सा वाले इसी लेप से बड़े-बड़े रोग दूर कर देते हैं। परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि कीचड़ का उपयोग किया किस उद्देश्य से है? किन्तु ज्यादातर लोग इसका प्रयोग दूसरों को अपने से अधिक गन्दा सिद्ध करने के लिए ही करने में आत्मसुख प्राप्त करने में लगे हैं।
अब चूँकि पानी का अभाव होता जा रहा है, और बढ़ते हुए भवन और सड़क निर्माण से मिट्टी भी आसानी से प्राप्त नहीं होती। इसीलिए लोगग अब अधिक धन और समय लगाकर नाना प्रकार की कीचड़ तैयार करने में लगे हैं।
विद्वान लोग बौद्धिक कीचड़ तैयार करते हैं। अभी रामचरितमानस के एक प्रवचनकार ने एक दूसरे बड़े विद्वान पर कीचड़ उछालने के लिए अत्यन्त परिश्रमपूर्वक और बहुत सारा धन खर्च करके एक पुस्तक प्रकाशित की है, उसमें अत्यन्त बौद्धिक चतुराई से वक्तव्यों का पोस्टमार्टम करके कीचड़ तैयार कर दी है और सौंप दी है उनके विरोधी प्रवचनकारों को जो उनके सामने अपने को बौना पा रहे थे। अब वे बड़े मजे से लगे हैं कीचड़ उछालने। इसी प्रकार अभी हाल में अमेरिका मूल की लेखिका केथरीन फ्रेंक ने छ: साल तक अथक परिश्रम करके कुछ दिवंगत भारतीय राजनीतिज्ञों पर उछालने के लिए कीचड़ तैयार की है। जिसे ब्रिटिश प्रकाशक हार्पर कॉलिन्स ने लाखों डालर खर्च करके पुस्तक के रूप में भारत में भेज दी है। शायद उन्हें नहीं मालूम कि भारत में बुरे से बुरे व्यक्ति पर, दिवंगत हो जाने पर कीचड़ उछालना उचित नहीं माना जाता। कीचड़ के मामले में और प्रगति करते हुए पिछले दिनों तहलका डाट कॉम ने भारत के सबसे स्वच्छ आदमी पर उछालने के लिए इलैक्ट्रानिक कीचड़ तैयार की है।
लाखों रुपए, बेशकीमती समय और ऊर्जा खर्च करके बनाई गई यह कीचड़ पहले से ही रंगे-पुते उन हुरियारों को सौंप दी है, जो एक स्वच्छ साफ भद्र पुरुष को देख-देख कर इस दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे। अब देखना इस कीचड़ उछाल खेल में वे कितने सक्रिय होते हैं। सारे देश में कीचड़ ही कीचड़ करके रख देंगे।
इसलिए कहता हूँ आप भी पीछे मत रहिये, उछाल दीजिये कीचड़।
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दुनिया के चोर उचक्कों एक हो जाओ
आज मैं पूरे आत्म विश्वास से सारी दुनिया के उन छोटे-बड़े चोर उचक्कों का आह्वान करता हूँ कि, हे दुनिया के चोर उचक्कों एक हो जाओ, और गर्व से कहो 'हम चोर हैं।` अब समय आ गया है कि हम अपनी ताकत पहचाने, हमारी एक महान परम्परा है, एक सार्वभौमिक संस्कृति है। पूर्व हो या पश्चिम, उ>ार हो या दक्षिण, हमारी एक निश्चित कार्य पद्धति है। हमारे साथ आदिकाल से ही तथाकथित सभ्य समाज द्वारा अत्याचार किया जाता रहा है। विश्व के प्रत्येक राष्ट्र में हमारी जाति की अच्छी खासी संख्या है फिर भी हमें तीसरे दर्जे का नागरिक माना जाता है। हमें आज भी अपना व्यवसाय चोरी छुपे करना पड़ रहा है। जहाँ एक ओर विकसित देशों में हमारी प्रगति पर तरह तरह के अवरोध उत्पन्न किये जाते रहे हैं वहीं विकासशील देशों में भी हमारे साथ अमानवीय व्यवहार किया गया है।
संसार के सभी देशों ने हमारे एक से एक होनहार प्रतिभावान चोरों को या तो जेलों में कैद कर रखा है या फिर उन्हें पत्थर मारकर अपमानित किया जाता रहा है। कुछ पिछड़े देशों में तो हमारे भाइयों के हाथ काट देने तक के कानून बना रखे हैं।
हमारे व्यवसाय का न तो कोई पशिक्षण संस्थान है और न ही किसी यूनिवर्सिटी में कोई व्यावसायिक पाठ्यक्रम है। इसके बाद भी हमारे र्क>ाव्यनिष्ठ कर्मवीर चोर भाइयों ने हमारा परम्परागत चौरकर्म को नई नई तकनीकि विकसित करके दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करते हुए अपनी संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि की है। मैं बड़े गर्व से कहता हूँ कि यदि धर्म निरपेक्ष कहीं कोई है तो वह हमारी जाति ही है। हम चोरी करते समय धर्म, रंग, वर्ग, संप्रदाय आदि में भेदभाव नहीं करते। हमारी भाषा भिन्न हो सकती है, वेशभूषा भी अलग है लेकिन अन्दर से हम सब एक हैं। अनेकता में एकता सच मायने में हमारे समाज में ही देखने को मिलती है। पहले हमारा कार्यक्षेत्र सीमित हुआ करता था किन्तु आवागमन के साधन और सूचना प्रौद्यौगिकी के विस्तार से आज हम अन्तर्राष्ट्री नेटवर्क स्थापित करने में सफल हो गए है। इस तरह 'वसुधैव कुटुम्बकम्` की भावना का परिपालन हमने ही किया है। उक्त विचार चेन्नई में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय चोर महासभा का उद्घाटन करते हुए मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित विपन्न बुद्धि ने प्रकट किये। अन्तर्राष्ट्रीय चोर महासंघ की स्थापना की आवश्यकता पर बल देते हुए उसकी स्पष्ट रूपरेखा समझाते हुए उसने कहा- "भाइयो! वैसे तो दुनिया के अधिकांश देशों ने हमारी व्यावसायिक गतिविधियों को रोकने के लिये पुलिस को आधुनिक संसाधानों से सक्षम कर लिया है। ऐसी स्थिति में मात्र केवल भारत में ही एक आशा की किरण दिखाई देती है। यहाँ का संविधान बड़ा दयालु है, वह हमारे विशाल समाज को पर्याप्त संरक्षण देता है। यहाँ की पुलिस से भी जितने मित्रतापूर्ण सम्बन्ध हमारे हैं उतने और किसी के नहीं हैं। हम सदैव अप्रत्यक्ष रूप से एक दूसरे का सहयोग करते रहते हैं। समय आने पर वह हमें जनता से बचाती है। परिणामस्वरूप हम दोनों ही निरन्तर प्रगति कर रहे हैं।
यहाँ वकीलों की भी एक बड़ी संख्या है। सौभाग्य से वे भी हमारे सहयोगी हैं। उनकी और हमारी आजीविका का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। वह एक तरह से हमारे अघोषित संरक्षक हैं। मानव अधिाकर परिषद जैसी अनेक संस्थायें भी हमारे बचाव में खड़ी रहती हैं। भारत की न्याय पालिका भी हमारे लिये अत्यन्त अदार हृदय वाली हैं। यहाँ चार पाँच प्रकार की निचली और ऊँची सम्माननीय अदालतें होती हैं जो हमारे प्रति अधिक संवेदनशील तो हैं किन्तु कभी कभी कोई अदालत गलती से किसी चोर को सजा सुना देती है तो ऊँची अदालत बिना समय लगाये उस पर रोक लगाकर हमें रिलीफ दे देती है।
यहाँ की जनता के हृदय में भी हमारे प्रति बड़ा आदर है। इसीलिये ये हमें नेता चुनने में भी भेदभाव नहीं करती। इन सब के सहयोग से आज भारत में हमारी संख्या लगभग ८० प्रतिशत तक जा पहुँची है। हालांकि जनगणना में चोर व्यवसाय की गणना नहीं की जाती परन्तु यह सभी जानतें कि आज़ादी के बाद हमारी संख्या सर्वाधिक बढ़ी है। अब सही मायने में हम बहुसंख्यक है। वैसे तो भारत की सारी राजनीति हमारे नियंत्रण में ही चल रही है परन्तु ि फर भी सीधा सीधा प्रतिनिधित्व कम ही है। अभी संसद में हमारी उपस्थिति मात्र १० प्रतिशत ही हो सकी है। बड़ी मुश्किल से हमारे दो नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुँचे हैं। अभी हमारे एक सम्माननीय विशिष्ट सदस्या को विधान सभा में प्रवेश करने से रोक दिया गया। वह तो अच्छा हुआ कि सौभाग्य से वहाँ महामहिम राज्यपाल एक संविधान की विशेषज्ञ निकली जिन ने एक मिनट में सजा याफ्ता को सीधे मुख्यमंत्री बना दिया। संविधान की रहस्यमयी धाराओं को हर कोई थोड़े ही समझ पाता है। और कोई नासमझ होता तो दूसरों से सलाह मशविरा करने में एक दो दिन देर कर ही देता। इसी प्रकार हमारे एक प्रसिद्ध चारा चोर के पीछे पूरी सी०बी०आई हाथ धोकर पीछे पड़ी है। उसे जेल पहुँचाने की पूरी तैयारी कर ली थी। वह तो भला हो हमारी बड़ी अदालत का जिसने येन वक्त़ पर उसे पूर्ण सुरक्षा प्रदान कर दी ।
अरे भाई " मनुष्य का आहार चुराने वाले मुर्गी चोरों और भुट्टे चोरों को पकड़ो तो पकड़ो, पर मुर्गी और सुअरों का चारा चुराने वालों पर इतनी ज्यादती क्यों? भारत एक धर्म निरपेक्ष प्रजातांत्रिक देश है। बहुमत ही इसकी शक्ति है और बहुमत अब हमारे साथ है। बहुजन समाज होने का दाबा भले ही कोई करे लेकिन बहुजन समाज हम चोरों का ही है। कमीं सिर्फ एक मंच बनाने की है। अभी हमारे चोर भाई असंगठित हैं, उन्हें अपनी सही संख्या का पता नहीं है क्योंकि वे सभी अपने अपने काम में व्यस्त रहते हुए केवल अपने ही क्षेत्र में परिचित होते है। उन्हें नहीं मालूम कि स्वतंत्रता के पश्चात परम्परागत चोरी के अलावा चोरों ने नए नए क्षेत्र विकसित कर लिये है।, जैसे रेलों के विकास के साथ बैगन चोर और कोयला चोरों की संख्या बढ़ी है। इधर लकड़ी चोरों ने अपने कीर्तिमान स्थापित किये हैं। चन्दन चोर वीरप्पन भाई की ही इतनी सेना है कि दो प्रदेश सरकारों को नचा नचा दे रहे हैं। दूसरी तरफ वाहन चोरों का भी एक बड़ा गिरोह सक्रिय है, उधर शक्कर चोर, यूरिया चोर पर्याप्त चर्चा में हैं।
कर चोरें और बिजली चोरों ने तो सभी सरकारों की नाक में दम कर रखा है। शासकीय कार्यालयों में कामचोरों की भी कमी नहीं है। धार्मिक स्थानों में मूर्तिचोरों और जूताचोरों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। आजकल दिल चुराने वाले मजनुओं की भी संख्या बढ़ती जा रही है। विद्यार्थियों में चिटचोरों के बढ़ते प्रभाव से सारा शिक्षा विभाग अस्त व्यस्त है। इस तरह आप जहाँ भी जायें, चोर ही चोर नजर आएँगे। इसलिये भाइयों अब हमारा ही बहुमत है। यदि हम सब संगठित हो जाएँ तो वह दिन दूर नहीं जब भारत में हमारा ही पूर्ण वर्चस्व होगा। मैं फिर एक बार आह्वान कर रहा हूँ-............हे दुनिया के चोरों एक हो जाओ.......और गर्व से कहो ................................हम चोर हैं।
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एक सरकारी तीर्थ यात्रा
पिछले दो तीन दिनों से विपन्न बुद्धि के द्वारा एकत्रित की जा रही विचित्र-विचित्र सामग्री और उसके असंतुलित व्यवहार से घर के सदस्यों को उसके मानसिक रूप से विक्षिप्त होने की आशंका सताने लगी थी। उसकी पत्नी घबराई हुई किसी अच्छे से मनोचिकित्सक का पता पूछने के उद्देश्य से हमारे पास आई और बोली- "भाई साहब आप ही कुछ कीजिये ! मुझे तो उनकी हालत कुछ गड़बड़ सी दिख रही है। अपने कमरे को आलतू फालतू सामान से भरे जा रहे हैं। पूछने पर काटने को दौड़ते हैं। अन्दर ही अन्दर कुछ डरे हुए मालूम पड़ते हैं। रात में सपने में सम्पर्क सम्पर्क बड़बड़ाते हैं।" मुझे भी लगा कि सारे ग्रहों के एक लाइन में आ जाने के कारण गर्मी भी कुछ ज्यादा ही पड़ रही है। हो न हो विपन्न बुद्धि सरक गया लगता है। मैं तुरन्त उसे देखने उसके घर गया। वहाँ सचमुच में उसकी पत्नी के बताये के अनुसार विपन्न बुद्धि अजीबो गरीब साजो सामान को व्यवस्थित करने में लगा था। एक कुएँ से पानी खींचने वाली रस्सी, एक बड़ा सा घड़ेनुमा लोटा, बारह तान का छाता, किसान टार्च, दोनों ओर सामान रखकर कंधे पर लटकाई जाने वाली खंदली, जिसमें अधिक समय तक खराब न होने वाली खाद्य सामग्री सतुआ, मुरमुरा, फल्ली दाने आदि भर रखी थी।
रस्सी से बँधा हुआ ढोलक नुमा बिस्तर आदि देखकर मुझे समझने में देर नहीं लगी कि विपन्न बुद्धि निश्चित रूप से नर्मदा की परिक्रमा करने जा रहा है। परन्तु इतनी भयंकर गर्मी में परिक्रमा का विचार मेरी समझ से बाहर था।
मैंने पूछा- "विपन्न बुद्धि! परिक्रमा करने का सबसे उचित समय दशहरा होता है। तुमने यह जानलेवा मौसम क्यों चुना? "
"मैं परिक्रमा पर नहीं, एक यात्रा में जा रहा हूँ" विपन्न बुद्धि अपनी पीठ पर बिस्तर बाँधते हुये बोला।
"कौन सी यात्रा......? बद्रीनाथ की यात्रा का भी यह समय नहीं है। चारों धाम यात्रा रेलगाड़ी भी कभी की जा चुकी है। रथयात्रा पंचकोसी यात्रा आदि सभी यात्राएँ ठंडे मौसम में ही सम्पनन होती हैं। फिर तुम्हें इस विपरीत मौसम में कौन सी यात्रा का शौक चर्राया है?" हमने कुछ खीझते हुये पूछा।
"मैं अपनी मर्जी से थोड़े ही जा रहा हूँ" उसने अपनी विवशता प्रकट करते हुए कहा। अनिच्छा से की जाने वाली यात्रा तो बस एक ही है, 'शवयात्रा` उसी में सभी लोग अनिच्छा पूर्वक जाते हैं।.......परतु उसके लिये इतनी तैयारी की क्या आवश्यकता है? मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि से उसे देखा। विपन्न बुद्धि लम्बी साँस खींचते हुए बोला- नहीं.....मित्र! शवयात्रा तो दो-नीन घण्टे में पूरी हो जाती है। 'ग्राम संपर्क अभियान यात्रा` पर ! ग्राम संपर्क यात्रा? यह कौन सी तीर्थ यात्रा है? इसकी विधि क्या है? कब की जाती है? कैसे की जाती है? और इसका फल क्या है? ......कृपा करके इसके महत्व पर भी प्रकाश डालिये। हमने उत्सुकता पूर्वक जिज्ञासा प्रकट की।
विपन्न बुद्धि ने अपनी यात्रा में काम आने वाले प्रपत्रों को पलटते हुए इस यात्रा के प्रयोजन, विधि? समय और फलाफल पर विस्तार पूर्वक बताया- 'ग्राम संपर्क अभियान यात्रा` एक सरकारी यात्रा है इसमें पूरी की पूरी सरकार ग्रामों से संपर्क करने के लिये टूट पड़ती है। सरकार के तीन प्रकार के यात्री दल होते हैं। पहला दल उन कर्मचारियों का होता है जो भीषण गर्मी की तेज लपटों के साथ साथ पिछली यात्रा की समस्याओं के हल न होने से उत्पन्न ग्राम वासियों के क्रोध की ज्वाला को सहन करते हुए पैदल सेना की तरह आगे आगे चलता है। कुछ सरकार से और कुछ जनता से भयभीत यह दल थका हारा जब गाँव में प्रवेश करता है तब गाँव के कु>ो उन्हें भौंक भौंक कर डरा देते हैं। यह दल गाँव में घर घर जाकर लोगों से समस्या पूछता है और खरी खोटी सुनता है। पिछली बार की तरह सभी समस्यायें हल करने का आश्वासन भी देता है। जहाँ कहीे पुराने अनुभवी सरपंच होते हैं वहाँ इस दल को भोजन भी प्राप्त होता है, अन्यथा अपने साथ रखा सतुआ खाकर किसी पेड़ के नीचे विश्राम करता है।
दूसरा दल उन बड़े अधिकारियों का होता हे जो प्रात: चाय नाश्ता करके शासकीय वाहन द्वारा छापामार शैली में किसी भी ग्राम से अचानक संपर्क करता है। चौपाल पर नागरिकों को एवं यात्री दल को एक साथ बैठाकर यह दल कुछ रटे रटाये प्रश्न पूछता है और उ>ार सुनकर कर्मचारियों को डाँटता है।
एक दो कर्मचारियों को सस्पेण्ड करता हे, और अगले ग्राम की ओर प्रस्थान करता है। निलम्बित कर्मचारियों की संख्या ही इस दल की यात्रा का प्रमाण होती है। तीसरा और अन्तिम दल मुख्य सरकार का होता है। जो हेलीकॉप्टर द्वारा अचानक किसी भाग्यशाली ग्राम का ऊपर से संपर्क करता हे। यह दल हेलीकॉप्टर से उतर कर कहीं क्रिकेट खेलने लगता है और कहीं कबड्डी। यह दल कब, कहाँ और कैसे टपक पड़ेगा कहा नहीं जा सकता। इसलिए प्रदेश के समस्त ग्राम इस दल की प्रतीक्षा में आकाश की ओर तोकते रहते हैं। जब कहीं हेलीकॉप्टर की आवाज सुनाई देती हे तब उस ग्राम के ग्रामवासी प्रसन्न और पैदल यात्री संशकित हो जाते हैं। किन्तु यदि हेलीकॉप्टर बिना उतरे आगे बढ़ जाता है तब पैदल यात्री प्रसन्न और ग्रामवासी उसी प्रकार दु:खी होते हैं जैसे कोई प्रेमी अपने सामने से प्रेमिका की डोली जाते हुए देखकर दु:खी होता है।
यह दल जहाँ उतरता हे वहाँ किसी को फुटबॉल, किसी को हॉकी, किसी को चश्मा आदि देकर सारे ग्राम को समस्या हीन कर देता है।
ग्राम के लोग सरकार के साथ फोटो खिंचवाकर धन्य हो जाते हैं। इस प्रकार से तीनों सरकारी दल ग्राम संपर्क यात्रा पूर्ण कर साल भर के लिये समस्या मुक्त हो जाते हैं। इस यात्रा पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं, जिसेस अर्थ संकट से जूझती सरकार की ग्रामों के प्रति उदारता प्रकट होती है।इस यात्रा से सरकार ग्रामों की, और ग्रामवासी सरकार की असलियत जान ल्रते हैं। कर्मचारियों का स्वास्थ्य परीक्षण भी हो जाता है। समाचार पत्रों में हल्ला हो जाने से लगने लगता है कि कुछ हो रहा है। आशावादी लोगों को तसल्ली हो जाती है। आजकल कुछ ग्राम इस यात्रा का बहिष्कार भी करने लगे हैं। वे इन्हें समस्याएँ बताना ही नहीं चाहते, फिर भी ये दल जबरन समस्या पूछते हैं जिससे कोई बड़ी समस्या खड़ी होने का डर है।
इस प्रकार विपन्न बुद्धि तैयार होकर हनुमान चालीसा का पाठ करते हुए 'ग्राम संपर्क अभियान यात्रा` पर निकल पड़ा।
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पिटाई पर हँसना स्वास्थ्य के लिए घातक
'हँसना स्वास्थ्य के लिये लाभदायक है` इस टॉनिक का रहस्योद्घाटन हमारे संवेदन शील मुख्य मंत्री ने विधायकों की पिटरई के मामले पर विधान सभा में वक्तव्य देते हुए किया। तभी से विपन्न बुद्धि उवाच को मौके बेमौके ठहाका लगाने की धुन सी सवार हो गई है। वह जहाँ भी जाता है, बेवजह अट्टहास करने लगता है। कुछ लोगों ने उसके मानसिक स्वस्थ्य खराब होने की आशंका से चिन्तित होकर उसे समझाया- "देखो विपन्न बुद्धि! हँसने के लिये उचित अवसर, उचित कारण और उचित स्थान होना आवश्यक है। तुम्हारा हर समय अकारण हँसना ठीक नहीं है।" किन्तु उसने इस समझाइस को यह कहकर नकार दिया कि तुम सब मुरे अच्छे स्वास्थ्य पर जलते हो । आखिर मुख्य मंत्री जी ने कहा है तो कुछ सोचकर ही कहा होगा। "......मैं तो हँसूगा। हँसने ने किसी का क्या बिगड़ता है? मुझे हँसने से कोई नहीं रोेक सकता।"
आखिर वही हुआ जो होना था। एक दिन एक भद्र नागरिक की असमय मृत्यु हो जाने पर श्मशान घाट पर उस शोकाकुल माहोल में भी विपन्न बुद्धि जोर से हँस पड़ा; फिर क्या था........मृतक के परिजनों ने दाह संस्कार के लिये लाई गई लकड़ियों से विपन्न बुद्धि की ऐसी धुनाई की कि वह अस्पताल में स्वास्थ्य लाभ कर रहा है। मैं भी उसे संवेदना प्रकट करने अस्पताल पहुँचा। मैंने कहा- "विपन्न बुद्धि! तुम्हें कितनी बार समझाया कि तुम मंत्रियों की बातों में मत लगा करो। मंत्री सर्व समर्थ होते हैं। वे कुछ भी कर सकते हैं-'समरथ को नहिं दोष गुसांईं`।
मंत्री जब कुछ कहते हैं तो उसका एक विशिष्ट अर्थ होता है। समझने वाले समझ लेते हैं और तुम जैसे नासमझ अनाड़ी ऐसी दुगर्ति को प्राप्त हो जाते हैं। मंत्री जब कहते हैं कि भ्रष्टाचार कतई बरदास्त नहीं किया जायेगा तब समझ लेना चाहिये कि कोई बड़ा भ्रष्टाचार होने वाला है। जब वे कहें कि धार्मिक सद्भाव हमारे देश की विशेषता है तब जान लेना चाहिये कि कहीं सांप्रदायिक दंगा होने की संभावना है। जब वे कहते हैं- हमारी सरकार को कोई खतरा नहीं है तो लोग समझ लेते हैं कि सरकार गिरने वाली है। जब कोई बड़े जोर से कहता हो कि अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा की जायेगी, तब समझना चाहिये कि चुनाव होने वाले हैं। जब कोई राजनेता सामाजिक न्याय की दुहाई देने लगे तो जान लीजिये वह किसी बड़े घोटाले में फँस गया है। जब कोई कहता है कि मुझे न्याय पालिका पर पूरा भरोसा है तब बुद्धिमान लोग जान लेते हैं कि महोदय की गिरफ्तारी होने वाली है।
इसलिये विपन्न बुद्धि! मंत्रियों की बात के पीछे जो विशिष्ट अर्थ होता है वह समझना चाहिये। मंत्री देश, काल और परिस्थिति के अनुसार कुछ भी बोलते हैं, लोग सुनते हैं और तालियाँ बजाकर घर चले जाते हैं। उस बात का इससे ज्यादा कोई महत्व नहीं होता। वे जिस किसी महापुरुष के जन्मदिवस पर आयोजित कार्यक्रम में भाग लेते हैं अपने भाषण में उसी को सबसे महान विभूति बताते हैं। और उन्हीं के मार्ग पर चलने का आग्रह करते हैं। किन्तु वे स्वयं किसी मार्ग पर नहीं चलते। और न ही किसी को चलने देते। आजकल राजनीतिज्ञों का कुछ कहना जनता से कोई ताल्लुक नहीं रखता, ये जनता भी जानती है और वे स्वयं भी जानते हैं। अब चूँकि पत्रकार मानते नहीं इसलिये कुछ न कुछ कहना ही पड़ता है। मान लीजिये मंत्री का कुर्ता फट गया, पत्रकार उसी के पीछे पड़ जायेगा। कैसे फटा? कब फटा? क्यों फटा? किसने फाड़ा?.......आदि आदि.....। नेता जी अब कैसे बतायें? कि कुर्ता उनके ही समर्थकों ने फाड़ा है, और ऐसा होता ही रहता है। अत: वे 'नो कमेंट्स` कहकर आगे बढ़ जाते हैं।
पर पत्रकारों के पास और कोई काम तो है नहीं, सो लग जाते हैं .....बाल की खाल निकालने। तब नेता जी की देते हैं- इसमें विदेशी षड्यन्त्र से इंकार नहीं किया जा सकता। अब आप खोजते रहिये।
इसलिये विपन्न बुद्धि! मंत्रियों की विवशता समझा करो। वे कुछ भी कहें, हमें विवेक से काम करना चाहिये। हँसना निश्चित रूप से स्वस्थ्य के लिये लाभदायक है किन्तु किसी की टाँग टूटने पर हँसना, आप की भी टाँग तुड़वा सकता है।
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विश्व सुन्दरी का नगरागमन
आज जब कि सारा नगर विश्व सुन्दरी के आगमन पर अपने पलक पाँवड़े बिछाकर सवगत की तैयारी कर रहा है। चारों ओर उत्साह ही उत्साह है। मुख्य मार्गों पर बड़े बड़े स्वागत द्वार बनाये गए हैं। न जाने कितने मारुतियाँ इधर से उधर दौड़ रही हैं। ऑटो रिक्शा में लाउडस्पीकर लगाकर कई बेरोजगार नवयुवक नई विश्व सुन्दरी के स्वागत की अपील चिल्ला चिल्ला कर रहे हैं। सारा नगर मारे खुशी के फूला नहीं समा रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे कोई महामानव नगर में पहली बार पदार्पण कर रहा हो। ऐसे उत्सवी माहोल में भी विपन्न बुद्धि मुँह लटकाये चिनतायुक्त मुद्रा में इन मूर्खता पूर्ण गतिविधियों को न चाहते हुये भी देखने को विवश है। हमने उसकी दुखती नस छेड़ते हुये पूछा-
विपन्न बुद्धि! तुम नहीं चल रहे विश्व सुन्दरी के दर्शन करने? फिर क्या था, वह लगभग चीखते हुए बोला- "क्या हो गया तुम सब को?......किस बात का स्वागत कर रहे हो? कौन कर रहा है इतना फ़जूल खर्च? कौन है विश्व सुन्दरी?......कल तक जो हमारे मुहल्ले में नाक पोंछते घूमती रहती थी......कभी किसी ने उसे विश्व सुन्दरी तो क्या बार्ड सुन्दरी भी नहीं माना,......वह अचानक रातोंरात विश्व सुन्दरी कैसे बन गई? उससे लाख गुनी सौन्दर्य की धनी बालायें। 'किसी की नजर न लग जाये` इस डर से अपने प्राकृतिक सौन्दर्य पर एक काली टिपकी लगाकर उसे छुपाने की कोशिश करती हुई अध्ययनरत हैं। तुम किसका स्वागत कर रहे हो? जो सुन्दरी अपने नगर की मर्यादा को दुनिया के चुने हुये लफंगों के सामने निर्लज्जता पूर्वक तोड़ आयी है, जो ईश्वर प्रद>ा सौन्दर्य का पोस्ट मार्टम कराकर लौटी है उसका स्वागत कर रहे हो? जिस देश की नारियाँ अपने शारीरिक अवयवों को हवा तक लगने में संकोच का अनुभव करती हैं, उन अंगों का यह तथाकथित विश्व सुन्दरी इंचटेप से नाप तौल करवा कर बेहूदा प्रदर्शन कर लौटी है, उसका स्वागत करने जा रहे हो....... और यदि वह सचमुच सुन्दरी है भी तो इसमें हल्ला मवाने की क्या जरूरत है? सौन्दर्य तो हमारे यहाँ बिखरा पड़ा है.....मालवा के ग्रामों में, हिमाचल के पर्वतीय क्षेत्रों में, कश्मीर की वादियों में, उ>ारांचल की घटियों में, राजस्थान के नगरों में जहाँ तहाँ सौन्दर्य ही सौन्दर्य है। किन्तु इसमें प्रतियोगिता की क्या बात है? निर्लज्जता की अवश्य प्रतियोगिता हो सकती है। विश्व निर्लज्ज प्रतियोगिता इसमें जो सबसे अधिक निर्लज्जता का प्रदर्शन कर सके उसे विश्व-निर्लज्ज की उपाधि से अलंकृत किया जाना चाहिये। लज्जा नारी का आभूषण है, जो उस आभूषण को हँसते हँसते उतार कर फेंक दे उसका स्वागत कौन करेगा? स्वागत करना ही है तो मल्लेश्वरा का करो, जिसने अपने शौर्य से विश्व ओलम्पिक में भारत का सम्मान बचाया है। स्वागत करना है तो उन सुन्दरियों का करो जो विज्ञान और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में पूरे विश्व में भारत का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। स्वागत उन सुन्दरियों का करो जो खेतों में, फैक्टरियों में, चाय बागानों में अपने परिश्रम से राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि कर रही हैं। अन्तराष्ट्रीय माफिया गिरोह के निर्देशन में बेहूदा कमर मटकाने वालों का क्या स्वागत? विपन्न बुद्धि गुस्से में था हमने उसे समझाते हुये कहा- "देखो विपन्न बुद्धि! यह इक्कीसवीं सदी है.......यह हल्ला की सदी है......जो जितना हल्ला मचायेगा, उतना लाभ पायेगा। आप क्या हैं? यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है, अपितु आप को लोग किस रूप में जानते हैं, हय ज्यादा महत्वपूर्ण है। हल्ला मचाइये और चुनाव जीतिये....हल्ला मचाइये और अपना घटिया उत्पादन बेचिये। इसी प्रकार यह सौन्दर्य प्रतियोगिता भी एक हल्ला है। इसमें जुड़े हुए समस्त लोगों का अपना अपना स्वार्थ होता है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ पहले यह आयोजन करवाती हैं फिर विश्व सुन्दरी का हल्ला मचाती हैं। सारे देश में ग्लेमर उत्पन्न करती हैं फिर धीरे से विश्व सुन्दरी अपने सौन्दर्य का राज़ खोलती है। किस साबुन से उसकी त्वचा निखरी है.......कौन से शैम्पू से उसके बाल चमके हैं......किस कम्पनी के वस्त्र उसे पसन्द हैं.....कौन सी लिपिस्टिक से विश्व सुन्दरी बना जा सकता है।....आदि आदि। भारत के सीधे सादे युवा युवतियों को बताती हैं।
बेचारे अक्ल के कच्चे, हमारे बच्चे वो सब सामान खरीद डालते हैं। इस तरह के कार्य के लिये भारत से अच्छा बाजार विश्व में और कहीं उपलब्ध नहीं है। इसलिये हर साल इस प्रतियोगिता में भारतीय युवती ही विश्व सुन्दरी बन रही है। अब हमें ही समझना होगा इस दुष्चक्र को।
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अस्पताल का मुँह
विपन्न बुद्धि गाँव में पैदा हुआ और वहीं गाय का दूध और विर्रा की रोटी खाकर पला बढ़ा था लिहाजा उसका शरीर कोकाकोला पीने वाले शहरी लोगों से पर्याप्त स्वस्थ था। एक तो वह कभी बीमार हुआ नहीं, और कुछ थोड़ा बहुत हुआ तो तुलसी का काढ़ा पीकर चंगा हो जाता था। घाव लगने पर टुटलू नामक वनस्पति को लगाकर ठीक कर लेता था। उसका कहना हे कि उसने कभी एलोपेथी की दवाई नहीं खाई, इसलिए अभी तक बिना चश्में के पढ़ लेता है। जठराग्नि प्रबल होने से खाने पीने में कोई परहेज नहीं। शादी विवाह में स्वरुचि भोज में एक एक खाद्य पद्धार्थ को धक्का मुक्की में खोज खोज कर खाने के बाद भी कभी डॉक्टर के पास नहीं गया।
अपनी विशेषताएँ बतलाते समय वह यह कहना कभी नहीं भूलता कि 'मैंने आज तक अस्पताल का मुँह नहीं देखा।` मैंने उसे समझााया था- विपन्न बुद्धि भले ही ईश्वर की कृपा से तुम्हें अस्पताल का मुँह नहीं देखना पड़ा, परन्तु तुम्हें किसी न किसी बहाने अस्पताल का मुँह जरूर देख लेना चाहिये। आजकल तो सभी के जीवन मरण का साथी अस्पताल ही है। आजकल सभी लोग अस्पताल के मुँह से ही पैदा होते हैं और अस्पताल के मुँह में ही जाकर मरते हैं। इसलिए अस्पताल के मुँह से परिचित होना बहुत ही आवश्यक है। लेकिन विपन्न बुद्धि की बुद्धि में यह बात नहीं घुसी, और वह अपनी 'अस्पताल के मुँह` न देखने की उपलब्धि को छोड़ने को कतई तैयार नहीं हुआ। बोला- मैं अपने वश भर तो अस्पताल के मुँह नहंीं देखँूगा।
अस्पताल के मुँह मुझे मौत मुँह दिखाई देता हे। एक दिन उसकी पत्नी अचानक नगर पालिका की स्वच्छता व्यवस्था की कृपा से हैजा की चपेट में आ गई। फिर क्या था विपन्न बुद्धि को मजबूरन अस्पताल जाना पड़ा। अस्पतालीय संस्कृति से पूर्ण अपरिचित होने से वह घण्टों मारा मारा घूमता रहा, पर उसे अस्पताल के मुँह नहीं मिला, जहाँ से अपनी पत्नी को भरती कर सकता। उस समय उसे समझ में आया कि अस्पताल के मुँह सुरसा के मुँह से कम नहीं होता। कहाँ से घुसा जाये? कैसे घुसा जाये? कुछ समझ में नहीं आता। पत्नी को गम्भीर अवस्था में लिये वह इधर उधर चक्कर लगाकर कोशिश करता रहा, पर अस्पताल के मुँह आखिर नहीं मिला तो नहीं मिला। विपन्न बुद्धि को परेशान देखकर अस्पतालीय संस्कृति का मर्मज्ञ एक पुराने रोगी को दया आ गई। उसने विपन्न बुद्धि को अस्पताल के ही एक ऐसे कर्मचारी से मिलवाया जो अस्पताल का मुँह बताने से लेकर श्मशान जाने तक की सारी व्यवस्था में माहिर था। उसने पचास मुँह दिखाई देने पर अस्पताल का मुँह बताया। बोला- देखो वे डॉक्टर साहब घूम रहे हैं, उनके घर जाना पड़ेगा। वहाँ वे तुमसे परामर्श शुल्क लेकर अस्पताल में भरती होने का परामर्श देंगे, तब जाकर भर्ती हो पाओगे। यदि तुम शुल्क में ऑटो रिक्शा का किराया भी शामिल कर दो तो वे यहीं घर मानकर परामर्श दे सकते हैं। विपन्न बुद्धि ने यही उचित समझा और उपरोक्त विधि से अस्पताल के मुँह में प्रवेश किया।
अब वह निश्चिन्त हो गया था कि अब तो बाजी मार ली। अभी डॉक्टर आयेंगे और फटाफट इलाज होगा। बहुत देर प्रतीक्षा करने पर जब कोई डॅक्टर नहीं आया तब पड़ोस के मरीज ने उसे समझाया- "भैया! यहाँ डॅक्टर आता नहीं, लाया जाता है। परामर्श शुल्क दो और ले आओ जिसे चाहो।"
तब एक डॉक्टर साहब घूमते हुए वहाँ आये और मरीज की ओर शिकार तरह देखते हुए बोले "क्या हो गया इसे?" और बिा किसी उ>ार की प्रतीक्षा किये एक पर्ची लिख दी जिसमें चार पाँच प्रकार के टेस्ट करवाने का निर्देश था, साथ ही कहाँ जाँच करवाना है उसका पता भी। दूसरी पर्ची फाड़ते हुए बोले- "मरीज को बचाना है तो देर मत करना।"
विपन्न बुद्धि पर्ची लेकर कई दुकानों पर गया पर वह इंजेक्शन नहीं मिला। तब उसी अस्पताल के विशेषज्ञ ने किस डॉक्टर की लिखी दवा किस दुकान पर मिलेगी समझाते हुए उक्त डॉक्टर की दुकान का पता बता दिया। मेडिकल स्टोर वाला जैसे कि प्रतीक्षा ही कर रहा था, बोला- "तुम्हारी किस्मत अच्छी है कि ये इंजेक्शन मिल गए, वरना शहर में किसी भी दुकान पर नहीं मिलते। हमने भी ये इंजेक्शन एक मरीज के लिये मँगवाये थे, पर लगने से पहले ही वह मर गया। "विपन्न बुद्धि ने मन ही मन उस मरने वाले को धन्यवाद दिया और पैसे निकालने के लिये जेब मे हाथ डाला......... कितने पैसे? "मात्र छह हजार रुपए।" दुकानदार ने बड़े सहज भाव से इंजेक्शन को पोलिथीन में लपेटते हुए कहा। छह हजार? ''ऐसे कैसे इंजेक्शन?`` विपन्न बुद्धि ने जेब में से हाथ निकालते हुए कहा।
"यह हार्ट अटैक के इंजेक्शन हैं" विपन्न बुद्धि! जल्दी करो, कहीे देर न हो जाये। पैसे नहीं हैं तो शाम को दे जाना, घर की बात है।" दुकानदार ने अपनत्व की भावना प्रकट करते हुए बीमारी की ओर उसका ध्यान खींचा। विपन्न बुद्धि हार्ट अटेक के नाम से घबराया हुआ इंजेक्शन लेकर शीघ्रता से अस्पताल पहुँचा और दोनों इंजेक्शन लगवा दिये। कुछ देर बाद पत्नी की हालत सुधरने के बजाय बिगड़ने लगी और देखते ही देखते कोमा की स्थिति में पहुँच गई। तब तक देखने वालों की भीड़ बढ़ने लगी थी। लोग तरह तरह की सलाह दे रहे थे। किसी अच्छे से डॉक्टर को बुलाओ। विपन्न बुद्धि! .....पैसों को मत डरो......पत्नी की ओर देखो। विपन्न बुद्धि ने सारे डॉक्टरों को परामर्श शुल्क देकर बुलाया। सभी डॉक्टर इस बात पर सहमत थे कि इसे हार्ट अटेक है ही नहीं.........पर क्या है?........इस पर सभी की अलग अलग राय थी। सभी ने अलग अलग पर्ची में अलग अलग दवाइयाँ लिखीं जो अलग अलग दूकानों से प्राप्त हुईं।
बाद में पता लगा कि उक्त इंजेक्शन की अन्तिम तिथि निकल रही थी, उनका ठिकाने लगाना आवश्यक था इसके लिये विपन्न बुद्धि मौके पर फँस गया था। दवाइयों का प्रभाव समाप्त होते ही मरीज अपने आप स्वस्थ हो गया।
इस तरह विपन्न बुद्धि अस्पताल की पूरी संस्कृति से परिचित हो गया।
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