मन रूपी अश्व कभी-कभी ऐसी चौकड़ी भरता है नियंत्रण की लगाम उसे रोक पाने में बेअसर हो जाती है। कहाँ से कहाँ पहुँच जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। आज सुबह जब घूमने के लिए निकला तो गर्मी से बुरा हाल था, वैसे भी दिल्ली की गर्मी के तो कहने ही क्या। सड़क के किनारे वाले पार्क में लगी बेंच पर बैठा ही था कि पीली पंखुड़ियों की बरसात होने लगी। मैं जहाँ बैठा हुआ था उसके एक ओर पीले फूलों के गुच्छे सजाए अमलतास खड़ा था तो दूसरी और सुर्ख लाल फूलों को सिर पर धारण किये गुलमोहर इतरा रहा था मानो दोनों के बीच पीले और लाल रंग के सौंदर्य प्रदर्शन की होड़ लगी हो। सूर्य देव का सारा प्रचण्ड ताप मानों लाल और पीले रंग में धरती पर उतर आया हो। ऐसी चमक ऐसा सौंदर्य कि एक बार देखो तो देखते ही रहो। एक टक निहारता रहा प्रकृति की इस अनुपम रूप -छवि को और पता नहीं कब उम्र का अश्व बचपन की कुंजों में पहुँच गया।
हमारे घर का दरवाजा जहाँ खुलता था वहीं से बाग की सीमा शुरू हो जाती। तमाम तरह के आमों के पेड़ और चारों और बड़ी खाई पर लगे शीशम, आँवला, नीम, बकेना, नीबू आदि के पेड़। गर्मी के दिनों में बाग में पानी भर दिया जाता था जिससे बाग में गर्मी का नामों निशान नहीं रहता और उस पर सुओं (तोतों) के कुतरे हुए आम खाकर तो मन तृप्त हो जाता। बाग के बीचों बीच अमलतास का बड़ा पेड़ था। पूरी साल भर तो हरे पत्ते सरसराते रहते परन्तु गर्मी के दिनों में जैसे ही पहला गुच्छा अमलतास की टहनियाँ अपने कानों में लटकाती कि मेरे लिए खुशी का पार ना रहता। जाने किसे-किसे ले-जा-जाकर उसे दिखा रहता और धीरे-धीरे पूरा पेड़ पीले झुमको से लद जाता और पत्ते गायब हो जाते यह जादुई आकर्षण मुझे इतना प्रभावित कर लेता कि खाट से उठते ही बाग की ओर भाग खड़ा होता। दिन भर वहीं जमा रहता। पीले-पीले गुच्छे तोड़-तोड़ कानों में लटका लेता । कोयल जब अमराई में आकर कूकती तो मन में लहरें उठने लगतीं। मन बँध जाता, लगता कि यहीं, यहीं और यहीं बैठे रहें। और ऐसा लगे भी क्यों नहीं देखने के लिए अनुपम सौंदर्य युक्त पीत पुष्पगुच्छ खाने के लिए मीठे आम, सूँघने के लिए अमराई की मधुर, मदिर और सोंधी गंध कानों के लिए अमृत घोलती कोकिल की कूक, मन को शीतलता प्रदान करता हवा की शीतल झोंका। सब कुछ तो है प्रकृति के पास और जो कुछ है उसके पास वह सबका है क्योंकि सब उसके हैं। प्रकृति कभी भेद-भाव नहीं करती। वह मुक्त हस्त अपनी सम्पदा लुटाती है। वन-बालाएँ अमलतास के गुच्छे कानों में पहनकर शरमाती, लजाती, इठलाती और बलखाती जब पगडण्डियों से गुजरती हैं तो महाकवि कलिदास भी उनका वर्णन किए बिना नहीं रह पाते।
अब गाँव जाने का मन नहीं होता क्योंकि अब वहाँ अमलतास नहीं रहा, अब वहाँ आमों का बाग नहीं रहा। अब कुछ है तो बड़े—बड़े मकान और गलियों मे पसरा सन्नाटा। मात्र दो-चार आम के बूढ़े पेड़ खड़े हैं जिन पर कभी-कभार कोयल आकर बैठती है ओर कूक कर रश्म अदायगी कर जाती है। अमलतास का ठूँठ मात्र है अभी जो बहुत कुछ अपने अन्दर छिपाए वृद्धावस्था का अभिशप्त जीवन जिए जा रहा है।
मैं न जाने क्या-क्या सोचते हुए कहाँ पहुँच गया और न जाने निराशा के कितने दरवाजों के पीछे पहुँच जाता कि मेरे मन को शायद अमलतास ने पढ़ लिया और हवा का झोंका आया और अमलतास ने अपने पीले जादुई गुच्छों से एक अंजुरी भर पंखुडियाँ मेरे सिर पर बिखरे दीं। मैं अतीत से वर्तमान में लौट आया।
प्रकृति के ये अबोले सहचर मानव जीवन के लिए बहुत उपयोगी हैं। जल्दी बडे होकर पीले फूलों से जादुई सौंदर्य बिखेरने वाला अमलतास वातावरण में नाइट्रोजन को संतुलित रखने मे गजब की क्षमता रखता है। इसीलिए अमलतास की प्रकृति सन्त की है लेकिन प्रकृति की छरहरी बालाएँ बल्लरी और लताएँ अमलतास को अपना प्रिय कन्त मान कर उस पर सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए होड़ लगाए रहती हैं—
सन्त अमलतास या महन्त अमलतास
बल्लरी लताओं के कन्त अमलतास !
पीत वसन पहन आप बाग में पधारे
पुष्प पांखुरी हों मानों स्वर्ण के सितारे
नख से शिख तक वसन्त का लिवास
बल्लरी लताओं के कन्त अमलतास !
सन्त .................................................!!
झोंके पवन के जब झूम झूम आते
लहरों में लहर लहर गुच्छ गुनगुनाते
वयःसन्धि लतिका का हो चला विकास
बल्लरी लताओं के कन्त अमलतास !
सन्त .................................................!!
अल्हड़ नवेली वनबेली यूँ बोली
सरेराह सन्त जी करो न यूँ ठिठोली
छेड़ेंगी सखियाँ कर करके उपहास
बल्लरी लताओं के कन्त अमलतास !
सन्त .................................................!!
भोली सुकुमार देह रूप के सलोने
छू छू के हवा मारे दिस दिस में टोने
अब कहाँ लताओं के होशो–हवा
बल्लरी लताओं के कन्त अमलतास !
सन्त .................................................!!
—डॉ॰ जगदीश व्योम
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