01 December 2007

हाइकु कविता के ध्वजावाहक प्रो० सत्यभूषण वर्मा


४ दिसम्बर ७५ वीं वर्षगाँठ पर विशेष
हाइकु कविता के ध्वजावाहक प्रो० सत्यभूषण वर्मा
-कमलेश भट्ट कमल

कलेवर की दृष्टि से दुनिया की सबसे छोटी काव्य विधा के रूप में चर्चित 'हाइकु' यूँ तो कविता की जापानी शैली है, किन्तु विगत ०९ दशकों से यह कविता हिन्दी समेत विभिन्न भारतीय भाषाओं में भी जानी पहचानी और लिखी जा रही है। ५, ७, ५ के वर्णक्रम में मात्र १७ अक्षरों वाली इस त्रिपदी कविता की भारत में १९१७ में प्रथम चर्चा का श्रेय जहाँ रवीन्द्रनाथ टैगोर को जाता है, वहीं हिन्दी में इसके प्रवर्तक अज्ञेय माने गए हैं जिन्होंने वर्ष १९५९ में अपने काव्य संग्रह 'अरी ओ कस्र्णा प्रभामय' में कुछ अनूदित हाइकु तथा कुछ हाइकु प्रभावित रचनाएँ दीं। किन्तु हाइकु कविता को उसके लम्बे शैशव काल से बाहर निकालकर आन्दोलन की स्थिति तक पहुँचाने का श्रेय जाता है जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के जापानी भाषा विभाग के पूर्व अध्यक्ष एवं प्रोफेसर स्व. डॉ० सत्यभूषण वर्मा को ।
०४ दिसम्बर १९३२ को रावलपिण्डी(पाकिस्तान) में जन्में प्रो० वर्मा जापानी भाषा के भारत के पहले प्रोफेसर थे। उन्होंने अन्तर्देशीय पत्र पर निकाले गए अत्यन्त लघु पत्रक 'हाइकु' द्वारा हाइकु के प्रचार प्रसार का वह कमाल कर दिखाया, जो अर्च्छी अच्छी पत्रिकाओं के माध्यम से भी संभव नहीं हो पाता है। १९७८ में उन्होंने इसके लिए भारतीय हाइकु क्लब की स्थापना की तथा फरवरी ७८ से अगस्त ८६ तक प्रकाशित 'हाइकु' के २६ अंकों ने हिन्दी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं में भी हाइकु सृजन को आन्दोलन का स्वरूप प्रदान करने की आधार पीठिका तैयार की।
हाइकु जैसी ही छोटी कद काठी और वैसी ही सादगी, ऋजुता और गम्भीरता जहाँ वर्मा जी के व्यक्तित्व का हिस्सा थी, वहीं अनथक श्रमशीलता, कार्य के प्रति समर्पण और प्रतिवद्धता ने उन्हें कार्मयोगी बना डाला। जापान और वहाँ की संस्कृति उनके रोम रोम में बसी थी और वर्ष में चार छ: जापान यात्राएँ उनकी नियमितचर्यो का हिस्सा थीं। जापान से भारत आने वाले तथा भारत से जापान जाने वाले विभिन्न महत्वपूर्ण प्रतिनिधि मण्डलों में प्रो० वर्मा की हिस्सेदारी किसी न किसी रूप में अवश्य होती थी। वे सही अर्थों में भारत और जापान के बीच सांस्कृतिक सेतु की तरह थे और उनकी इसी छवि का संज्ञान लेते हुए वर्ष १९९६ में जापान सम्राट की ओर से नई दिल्ली में 'दि आर्डर आफ राइजिंग सन: गोल्ड रेज विद रोसेट' नामक महत्वपूर्ण सम्मान से सम्मानित किया गया था। दूसरी ओर हाइकु कविता के प्रचार प्रसार में उनकी महत्वपूर्ण और अत्यन्त उपयोगी भूमिका तथा दीर्घकालिक योगदान के लिए उन्हें दिसम्बर २००२ में जापान में हाइकु कविता के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान से भी पुरस्कृत किया गया था।
जापानी के साथ साथ चीनी, उडिया, बाँगला, अंग्रेजी, हिन्दी आदि कई भाषाओं के विद्वान प्रो० वर्मा ने स्वयं हाइकु सृजन नहीं किया, लेकिन सीधे जापानी से भारतीय भाषाओं में हाइकु के अनुवाद का अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य करते हुए उन्होंने इस विधा से भारतीय रचनाकारों का साक्षात्कार कराया। उससे पूर्व हाइकु अंग्रेजी अनुवादों के माध्यम से ही लोगों तक पहुँचा था और उसकी कोई स्पष्ट छवि, शिल्प या दर्शन सुनिश्चित नहीं था। उनकी पुस्तक 'जापानी हाइकु और आधुनिक हिन्दी कविता ने उनके हाइकु मिशन को पूरा करने में अत्यन्त महत्वूर्ण योगदान किया। उससे पूर्व उनकी अनूदित पुस्तक 'जापानी कविताएँ' वर्ष १९७७ में ही प्रकाशित हो चुकी थी। जापान में प्रकाशित पहले जापानी हिन्दी शब्दकोश की रचना करके उन्होंने दोनों भाषाओं के बीच एक सुदृढ़सेतु के निर्माण का भी उल्लेखनीय कार्य किया। अनुवाद के क्षेत्र में किए गए उनके कार्यों को अत्यन्त सम्मान से याद किया जाता है।
प्रो० वर्मा भारत में हाइकु सम्बन्धी हर गतिविधि के केन्द्र १३ जनवरी २००५ को अपनी मृत्यु के ठीक पूर्व तक बने रहे। १९८८ में उनके द्वारा निर्मित हाइकु केन्द्रित लघु वृत्त चित्र 'स्माल इज़ द ब्यूटीफुल' विधा के लिए उनका एक अन्यतम योगदान रहा, जिसे जापान में पुरस्कृत भी किया गया था। उनकी प्रतिबद्धता और उनके प्रयासों का ही परिणाम था कि मेरठ तथा लखनऊ विश्वविद्यालयों में हाइकु केन्द्रित शोध हुए तथा अन्य कई विश्वविद्यालयों ने हाइकु को शोध के लिए चुना।
हाइकु कविता केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं हो गयी कि वह आयातित विधा थी। आयातित तो सॉनेट भी था, लेकिन त्रिलोचन शास्त्री से आगे यह कहाँ बढ़ पाया? हाइकु के साथ ऐसी स्थिति नहीं है। हिन्दी में सैकड़ों रचनाकार निरंतर हाइकु सृजन कर रहे हैं। और तो और भोजपुरी जैसी क्षेत्रीय भाषाओं में भी कई दर्जन रचनाकारों ने हाइकु पर गम्भीर कार्य किया है। शताधिक हाइकु संग्रह व संकलन इस दिशा में किए जा रहे कार्यों के प्रमाण हैं। हिन्दी के अलावा गुजराती, सिन्धी, असमिया, बँगला, मराठी आदि भाषाओं में भी हाइकु में प्रचुर सृजन हुआ है।
१७ अक्षरों के कलेवर की संक्षिप्तता ने आज के अत्यन्त व्यस्त समय में लोगों के लिए साहित्य सृजन और पठन पाठन के नये आयाम जोड़े हैं। कदाचित इसीलिए इसे इक्कीसवीं सदी की कविता के रूप में भी देखा गया है। संक्षिप्तता ने ही हाइकु के विभिन्न व्यावसायिक व अन्य प्रयोगों के भी द्वार खोले हैं। चित्रकार जितेन साहू ने हाइकु कविताओं को दीवारों और पत्थरों पर चित्रित करके हाइकु वाटिकाएँ सजाई है तो घरों के पर्दों पर हाइकु पेन्ट करके उनमें नयी जान फूँकी है। कलाकार पारस दासोत ने भी दीवारों और समाधि प्रस्तरों पर हाइकु के उत्कीर्णन की पहल की है। संक्षिप्तता की वजह से ही हाइकु कविताओं के सिरैमिक, फर्नीचर, टेक्सटाइल, ग्लास, स्टेशनरी जैसे कितने ही उद्योगों मे प्रायोग की संभावनाओं की तलाश की जा सकती है। सिनेकारों ने तो हाइकु की तर्ज पर तीन शॉट वाले 'सिनेकु' की शुरुआत भी कर दी है। बंगलूरू के के.रामचन्द्र बाबू ने ऐसे कोई आधा दर्जन सिनेकु की रचना की है, जिनका प्रदर्शन त्रिवेन्द्रम अर्न्तराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में २००६ में किया जा चुका है
हम देखते हैं कि एक आदमी की सार्थक पहल और प्रतिबद्धता कितने बड़े और व्यापक सृजन तथा बदलाव की भूमिका तैयार कर सकती है, प्रो० सत्यभूषण वर्मा इसके अप्रतिम उदाहरण हैं। भारत में जब भी, जहाँ भी हाइकु की चर्चा होगी, प्रो० वर्मा का नाम इसके ध्वजावाहक के रूप में लिया जाता रहेगा।

कमलेश भट्ट कमल
के. एल १५४, कविनगर
गाजियाबाद २०१००२(उ० प्र०)
मो० ९९६८२९६६९४

1 comment:

Anonymous said...

Dear Mr Kamlesh ji
Your article abou Prof Verma and about his inspiring haiku journeyis excellent,thank you.
With best wishes,
angelee deodhar