08 April 2008

राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन

राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन
संसार में प्राय: दो प्रकार के लोग होते हैं। पहले प्रकार के वे जो युग का अनुशरण करते हैं, 'जैसी बहै बयार पीठि ताही को दीजै` के सिद्धान्त का अनुपालन करते हुए जीवन यापन करते हैं, ऐसे लोगों को 'सामान्य जन` की संज्ञा दी जाती है। दूसरे प्रकार के वे लोग होते हैं, जिनका अनुशरण युग करता है, जिनसे युग प्रभावितबहुत बज चुकी जर्जर वीणा, बहुत प्रेम का गान हुआ। बहुत हो चुका रास रंग कवि, बहुत दिनों मधुमास हुआ। वे सब सपने की बातें थीं, जरा सत्य को अपनाओ। बहुत दिनों तक हुआ न्याय का और बहुत अपमान हुआ। होता है, जो युग को अपने आदर्शों और सिद्धान्तों के पीछे चलने को विवश कर देते हें, ऐसे महापुरुषों को 'युग पुरुष` कहा जाता है। राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन ऐसे ही युग पुरुष थे। वास्तव में वे नयी चेतना, नयी लहर, नयी क्रान्ति पैदा करने वाले कर्मयोगी थे। समाज और राजनीति को नयी दिशा देने वाले काल पुरुष थे। श्री लक्ष्मीकान्त वर्मा राजर्षि टण्डन के व्यक्तित्व को रेखांकित करते हुए लिखते हैं- "देखने में एक अस्थिपंजर किन्तु आँखों में अनन्त ज्योतिराशि, मन में अजस्र आत्म शक्ति, माथे की चिन्तित रेखाओं में युग का संघर्ष, वाणी में निसंग निष्ठा, संकेतों में विश्वास और अस्त-व्यस्त केशों तथा रूखे सूखे कलेवर में अनन्त जीवन रस। छेड़िये तो तपस्वी की विभूति मिले, मौन रूप देखिये तो निर्विकल्प समाधि की परिधि तक चले जाइये। विरोध करिये तो फौलाद के स्पर्श का भान मिले। स्वीकृति दीजिए तो एक दिव्य आलोक की अनुभूति।" १ ऐसा विलक्षण था उनका व्यक्तित्व। राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के अग्रणी पंक्ति के नेता थे। कुछ विचारकों के अनुसार स्वतंत्रता प्राप्त करना उनका पहला साध्य था। हिन्दी को वे साधन मानते थे- "यदि हिन्दी भारतीय स्वतंत्रता के आड़े आयेगी तो मैं स्वयं उसका गला घोंट दूँगा। वे हिन्दी को देश की आजादी के पहले आजादी प्राप्त करने का साधन मानते रहे और आजादी मिलने के बाद आजादी को बनाये रखने का।"२ यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि टण्डन जी का राजनीति में प्रवेश हिन्दी प्रेम के कारण ही हुआ। १७ फरवरी १९५१ को मुजफ्फर नगर 'सुहृद संघ` के १७ वें वार्षिकोत्सव के अवसर पर टण्डन जी ने कहा था- "हिन्दी के पक्ष को सबल करने के उद्देश्य से ही मैंने कांग्रेस जैसी संस्था में प्रवेश किया, क्योंकि मेरे हृदय पर हिन्दी का ही प्रभाव सबसे अधिक था और मैंने उसे ही अपने जीवन का सबसे महान व्रत बनाया।...... हिन्दी साहित्य के प्रति मेरे (उसी) प्रेम ने उसके स्वार्थों की रक्षा और उसके विकास के पथ को स्पष्ट करने के लिए मुझे राजनीति में सम्मिलित होने को बाध्य किया।" अत: यह कहा जा सकता है कि टण्डन जी के साध्य स्वतंत्रता और हिन्दी दोनों ही थे। राजर्षि में बाल्यकाल से ही हिन्दी के प्रति अनुराग था। इस प्रेम को प्रौढ़ता प्रदान करने की पं० बालकृष्ण और मदन मोहन मालवीय जी ने। १० अक्टूवर १९१० को काशी में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन महामना मालवीय जी की अध्यक्षता में हुआ और टण्डन जी सम्मेलन के मंत्री नियुक्त हुए। तदनन्तर हिन्दी साहित्य सम्मेलन के माध्यम से हिन्दी की अत्यधिक सेवा की। टण्डन जी ने हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिए हिन्दी विद्यापीठ प्रयाग की स्थापना की। इस पीठ की स्थापना का उद्देश्य हिन्दी शिक्षा का प्रसार और अंग्रेजी के वर्चस्व को समाप्त करना था। सम्मेलन हिन्दी की अनेक परीक्षाएँ सम्पन्न करता था। इन परीक्षाओं से दक्षिण में भी हिन्दी का प्रचार प्रसार हुआ। सम्मेलन के इस कार्य का प्रभाव महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में भी पड़ा, अनेक महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में हिन्दी के पाठ्यक्रम को मान्यता मिली। वे जानते थे कि सम्पूर्ण भारत में हिन्दी के प्रसार के लिए अहिन्दी भाषियों का सहयोग अपेक्षित है। शायद उनकी इसी सोच का परिणाम था सम्मेलन में गाँधी का लिया जाना। आगे चलकर 'हिन्दुस्तानी` के प्रश्न पर टण्डन जी और महात्मा गाँधी में मतभेद हुआ। टण्डन जी अपराजेय योद्धा थे। वे सत्य और न्याय के लिए किसी से भी लोहा ले सकते थे। अपने सिद्धान्तों पर चट्टान की तरह अडिग एवं स्थिर रहते थे। परिणामत: गाँधी जी को अपने को सम्मेलन से अलग करना पड़ा, टण्डन जी निरापद अपने मार्ग पर बढ़ते रहे। सन् १९४९ में जब संविधान सभा सम्बंधी प्रश्न उठाया गया तो उस समय एक विचित्र स्थिति थी। महात्मा गाँधी तो हिन्दुस्तानी के समर्थक थे ही, पं० नेहरू और डॉ० राजेन्द्र प्रसाद तथा अन्य अनेक नेता भी हिन्दुस्तानी के पक्षधर थे, पर टण्डन जी हारे नहीं, झुके नहीं, परिणामत: विजय भी उनकी हुई। ११, १२, १३, १४ दिसम्बर १९४९ को गरमागरम बहस के बाद हिन्दी और हिन्दुस्तानी को लेकर कांग्रेस में मतदान हुआ, हिन्दी को ६२ और हिन्दुस्तानी को ३२ मत मिले। अन्तत: हिन्दी राष्ट्रभाषा और देवनागरी राजलिपि घोषित हुई। हिन्दी को राष्ट्रभाषा और 'वन्देमातरम्` को राष्ट्रगीत स्वीकृत कराने के लिए टण्डन जी ने अपने सहयोगियों के साथ एक और अभियान चलाया था। उन्होंने करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर और समर्थन पत्र भी एकत्र किए थे। यहाँ यह उल्लेख कर देना भी अपेक्षित है कि टण्डन जी ने नागरी अंकों को संविधान में मान्यता दिलाने के लिए भरसक कोशिश की इस हेतु उन्होंने उस संस्था को छोड़ा जिसकी सेवा लगभग पाँच दशक तक की। संविधान-सभा में राजर्षि ने अंग्रेजी अंकों का विरोध किया पर नेहरू जी की हिदायत के कारण कांग्रेसी सदस्य मुंशी श्री गोपाल स्वामी आयंगर के फार्मूले के पक्ष में रहे। टण्डन जी का विरोध प्रस्ताव गिर गया और नागरी अंक संविधान में मान्यता प्राप्त न कर सके। राजर्षि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का आकलन करते समय प्राय: उनके साहित्यकार रूप को अनदेखा कर दिया जाता है। वह एक उच्चकोटि के रचनाकार थे, उनकी रचनाओं में तत्कालीन इतिहास की खोज की जा सकती है। साहित्यकार के रूप में टण्डन जी निबंधकार, कवि और पत्रकार के रूप में दिखलाई पड़ते हैं। उनके निबंध हिन्दी भाषा और साहित्य, धर्म और संस्कृति तथा अन्य विविध क्षेत्रों से सम्बंधित हैं। भाषा और साहित्य सम्बंधी निबंधों में- कविता, दर्शन और साहित्य, हिन्दी साहित्य का कानन, हिन्दी राष्ट्र भाषा क्यों, मातृभाषा की महत्ता, भाषा का सवाल, गौरवशाली हिन्दी, हिन्दी की शक्ति, कवि और दार्शनिक आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। धर्म और संस्कृति सम्बंधी निबंधों में- भारतीय संस्कृति और कुम्भमेला, भारतीय संस्कृति संदेश तथा अन्य निबंधों में लोककल्याण कारी राज्य, धन और उसका उपयोग, स्वामी विवेकानन्द और सरदार वल्लभ भाई पटेल आदि अति महत्वपूर्ण हैं। काव्य रचनाओं में 'बन्दर सभा महाकाव्य`, 'कुटीर का पुष्प` और 'स्वतंत्रता` अपना ऐतिहासिक महत्व रखती हैं। इन कविताओं में राष्ट्रीयता और देशभक्ति की प्रमुखता है। उनकी रचनाओं में काव्यशास्त्र की बारीकी ढूँढ़ना छिद्रान्वेषण करना ही होगा, किन्तु युगीन यथार्थ की अभिव्यक्ति टण्डन जी ने जिस ढँग से की है, वह निश्चय ही श्लाघनीय है- एक एक के गुण नहिं देखें, ज्ञानवान का नहिं आदर, लड़ैं कटैं धन पृथ्वी छीनैं जीव सतावैं लेवैं कर। भई दशा भारत की कैसी चहूँ ओर विपदा फैली, तिमिर आन घोर है छाया स्वारथ साधन की शैली।।
अपनी अपनी चाल ढाल को सब कोऊ धर-धर छप्पर पर, चले लुढ़कते बुरी प्रथा पर जिसका कहीं पैर नहिं सिर। धनी दीन को दुख अति देवैं, हमदर्दी का काम नहीं, धन मदिरा गनिका में फूँकै करैं भला कुछ काम नहीं।।३ 'बन्दर सभा महाकाव्य` में आल्हा शैली में अंग्रेजों की नीतियों का भंडाफोड़ किया है। उन्होंने अंग्रेजों के प्रति जो चुटकियाँ ली हैं उनमें से एक-दो का आनन्द आप भी लीजिए- कबहूँ आँख दाँत दिखलावैं, लें डराय बस काम निकाल। कबहूँ नम होय सीख सुनावैं, रचैं बात कै जाल कराल।।४४।। ऐसे वैसे तो डर जावैं या फँस जावैं हमारे जाल। जौने तनिक अकड़ने वाले तिनके लिए अनेकन चाल।।।४५।।४ पत्रकारिता के क्षेत्र में टण्डन जी अंग्रेजी के भी उद्भट विद्वान थे। श्री त्रिभुवन नारायण सिंह जी ने उल्लेख किया है कि सन् १९५० में जब वे कांग्रेस के सभापति चुने गए तो उन्होंने अपना अभिभाषण हिन्दी में लिखा और अंग्रेजी अनुवाद मैंने किया। श्री सम्पूर्णानन्द जी ने भी उस अंग्रेजी अनुवाद को देखा, लेकिन जब टण्डन जी ने उस अनुवाद को पढ़ा, तो उसमें कई पन्नों को फिर से लिखा। तब मुझे इस बात की अनुभूति हुई कि जहाँ वे हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान थे, वहीं अंग्रेजी साहित्य पर भी उनका बड़ा अधिकार था।५ भारतीय संस्कृति के परम हिमायती और पक्षधर होने पर भी राजर्षि रूढ़ियों और अंधविश्वासों के कट्टर विरोधी थे। साथ ही उनमें एक अद्भुत आत्मबल था, जिससे वे कठिन से कठिन कार्य को आसानी से सम्पन्न कर लेते थे। उनके व्यक्तित्व के इस पहलू के एक-दो उदाहरण पर्याप्त होंगे- प्राय: लोग समझते हैं कि पका हुआ भोजन सुपाच्य होता है, पर राजर्षि ने इसे एक रूढ़ि माना और उन्होंने वर्षों तक आग से पके हुए भोजन को नहीं ग्रहण किया। चीनी खाना एक बार छोड़ दिया। एक ओर उन्हें गाय के दूध से परहेज था तो दूसरी ओर चमड़े के जूते से। इस प्रकार वे एक अद्भुत व्यक्तित्व के धारक थे। राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन ने भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों एवं कुप्रथाओं पर भी अपने दो टूक विचार व्यक्त किये। जैसे बाल-विवाह और विधवा विवाह के सम्बंध में उनका मानना था कि "विधवा विवाह का प्रचार हमारी सभ्यता, हमारे साहित्य और हमारे समाज संगठन के मुख्य आधार पतिव्रत धर्म के प्रतिकूल हैं" उन्होंने स्पष्ट किया कि विधवा-विवाह की माँग इसलिए जोर पकड़ रही है, क्योंकि हमारे समाज में बाल-विवाह की शास्त्र विरुद्ध प्रणाली चल पड़ी है और बाल विधवाओं का प्रश्न ही भारतीय समाज की मुख्य समस्या है। अत: "बाल-विवाह की प्रथा को रोकना ही विधवा विवाह करने की अपेक्षा अधिक महत्व का कर्तव्य सिद्ध होता है।" इतिहास इस सच का साक्षी है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में टण्डन जी ने एक योद्धा की भूमिका का निर्वाह किया। वे सन् १८९९ में कांग्रेस के सदस्य बने और १९०६ में इलाहाबाद से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधि चुने गए। १९२० में असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। गाँधी जी के आह्वान पर वे वकालत के अपने फलते-फूलते पेशे को छोड़कर इस संग्राम में कूद पड़े। सन् १९३० में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के सिलसिले में बस्ती में गिरफ्तार हुए और कारावास का दण्ड मिला। सन् १९३७ में धारा सभाओं के चुनाव हुए। इन चुनावों में से ग्यारह प्रान्तों में से सात में कांग्रेस को बहुमत मिला। उत्तर प्रदेश में भी कांगे्रस को भारी सफलता मिली और इसका पूरा श्रेय टण्डन जी को था। श्री लाल बहादुर शास्त्री लिखते हैं- सन् १९३६-३७ में नयी प्रान्तीय धारा सभाओं के चुनाव हुए, जिसमें कांग्रेस ने पूरी शक्ति से भाग लिया। उ>ार प्रदेश में भी कांग्रेस को भारी सफलता मिली और इसका पूरा श्रेय टण्डन जी को जाता है। उन्होंने सारे प्रदेश में दौरा किया वे स्वयं प्रयाग नगर से विधान सभा के लिए खड़े हुए और निर्विरोध विजयी हुए। यह उनके अनुरूप ही था। कुछ समय बाद जब मन्त्रिमण्डल बना, वह धारा सभा के सर्वसम्मत से अध्यक्ष (स्पीकर) चुने गए।६ टण्डन जी लगातार देश के स्वतंत्रता संग्राम में रत रहे। इसी क्रम में १९४० में नज़रबन्द कर लिए गए और एक वर्ष तक जेल में रहे। अगस्त १९४२ को इलाहाबाद में फिर गिरफ्तार हुए और १९४४ में जेल से मुक्त हुए। यह उनकी अन्तिम एवं सातवीं जेल यात्रा थी। उनके संघर्ष और त्याग को लक्षित करते हुए किशोरीदास वाजपेई जी ने लिखा है- "जब जब राष्ट्रीय संघर्ष हुए, टण्डन जी सबसे आगे रहे। आप खाली बैठना तो जानते ही नहीं ।"७ १९४२ में जब वे जेल से छूटे तो उन्हें दिखलाई पड़ा कि भारतीय समाज में निराशा छायी हुई है, सभी हताश पड़े हुए हैं। अत: उन्होंने 'कांग्रेस प्रतिनिधि असेमबली` नामक संस्था की स्थापना कर पुन: नई चेतना का संचार किया और जब प्रान्तीय कमेटियाँ बनी तब 'प्रतिनिधि असेम्बली` भंग कर दी गई। टण्डन जी इलाहाबाद नगरपालिका के अध्यक्ष रहे और अनेक साहसी तथा ऐतिहासिक कार्य किये। १९५२ में लोकसभा के तथा १९५७ में राज्य सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। इस प्रकार वे आजीवन भारतीय राजनीति में सक्रिय रहकर उसे दिशा प्रदान करते रहे। भारतवर्ष में स्वतंत्रता के पूर्व से ही साम्प्रदायिकता की समस्या अपने विकट रूप में विद्यमान रही। कुछ नेता टण्डन जी पर भी सांप्रदायिक होने का आरोप लगाते रहे हैं। यह सच है कि राजर्षि अपनी संस्कृति के परम भक्त और पोषक थे। वे यह कहने में भी हिचक का अनुभव नहीं करते थे कि भारत में दो संस्कृतियों को जीवित रखना देश के साथ विश्वासघात करना होगा, पर इसका मतलब यह नहीं था कि टण्डन जी साम्प्रदायिक थे, मुसलिम विरोधी थे। इस सम्बंध में कुलकुसुम के विचार कितने सार्थक हैं- "यदि किसी धर्म या संस्कृति में कोई व्यक्ति विशेष आस्था रखता है, तो उसके विरोधी प्राय: यह समझने की भूल कर बैठते हैं कि वह आदमी अन्य धर्मों तथा संस्कृतियों का शत्रु है। यही बात राजर्षि टण्डन के साथ हुई। उनके अनन्य हिन्दी प्रेम, भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं की एकनिष्ठा, आस्था और साधुओं के से वेष-विन्यास को देखकर उनके विरोधियों ने जान बूझकर या अनजाने ही यह प्रचार करने की भूल कर दी कि टण्डन जी मुसलमानों के शत्रु हैं।"८ स्वयं टण्डन जी ने भी लिखा है- "मेरे हिन्दी के काम के कारण लोगों ने मुझे मुसलमान भाइयों का मुखालिफ समझ लिया। इन लोगों को यह नहीं मालूम कि बहुत से मुसलमान मेरे कितने अच्छे दोस्त हैं। मेरे सामने यदि कोई मुसलमान के साथ अन्याय करे, तो मैं उसके पक्ष में जान की बाजी लगा दूँगा।" वास्तव में टण्डन जी का व्यक्तित्व मानववादी था। उनके घर पर जो बालक उनका सहयोग करता था, वह मुसलमान था, पर कैसी विडम्बना है कि लोग कहते हैं कि टण्डन जी साम्प्रदायिक थे। पुरुषोत्तमदास टण्डन के बहु आयामी और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को देखकर उन्हें 'राजर्षि` की उपाधि से विभूषित किया गया। राजर्षि की शास्त्र सम्मत परिभाषा क्या होती है, यहाँ यह बतलाने का अवसर नहीं है, पर शास्त्रविदों एवं विद्वानों ने टण्डन जी को 'राजर्षि` उपाधि के उपयुक्त पात्र माना। १५ अप्रैल सन् १९४८ की संध्यावेला में सरयू तट पर वैदिक मंत्रोच्चार के साथ महन्त देवरहा बाबा ने आपको 'राजर्षि` की उपाधि से अलंकृत किया। कुछ लोगों ने इसे अनुचित ठहराया, पर ज्योतिर्मठ के श्री शंकराचार्य महाराज ने इसे शास्त्र सम्मत माना और इसकी पुष्टि की काशी की पंडित सभा ने १९४८ के अखिल भारतीय सांस्कृतिक सम्मेलन के उपाधि वितरण समारोह में। तब से यह उपाधि उनके नाम के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई स्वयं अलंकृत हो रही है। राजर्षि टण्डन जी के व्यक्तित्व के अन्य अनेक पहलू और भी हैं; जैसे वे गरीबों, पीड़ितों के सहायक थे, सही अर्थों में दीनबंधु थे, करुणा की मूर्ति थे और बाबू जी कितने नैतिक आचरण के व्यक्ति थे इसका अनुमान इस उदहरण से लगाया जा सकता है- "सन् १९५० का महाकुम्भ था। बहुआ (टण्डन जी की धर्मपत्नी, जिन्हें घर में इसी नाम से जाना जाता है) ने गंगा स्नान के लिए गाड़ी से जाने की बात कही। बाबू जी ने उत्तर दिया कि गाड़ी 'स्पीकर` की है। तुम मेरे साथ तो जा सकती हो, किन्तु अकेले नहीं।"९ उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन के बाद यह कहा जा सकता है कि राजर्षि का व्यक्तित्व बहुआयामी और राजर्षि के अनुरूप था। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे हिन्दी के अनन्य प्रेमी ही नहीं, बल्कि हिन्दी के पर्याय थे। हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनका उल्लेख एक समर्थ कवि और निबंध लेखक के रूप में होता है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर संनानियों में उनकी गणना अग्रिम पंक्ति के सेनानियों में की जाती है और उनका नाम भारतीय स्वंतंत्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से अंकित है। वे परम स्नेही, उदार और करुणा की मूर्ति होते हुए भी इस्पाती व्यक्तित्व के धारक थे। हिमालय की तरह अचल और अटल। परम हिन्दी सेवी, राष्ट्र-भक्त और भारतीय संस्कृति के इस उपासक को मेरा शत् शत् नमन।
"देखने में एक अस्थिपंजर किन्तु आँखों में अनन्त ज्योतिराशि, मन में अजस्र आत्म शक्ति, माथे की चिन्तित रेखाओं में युग का संघर्ष, वाणी में निसंग निष्ठा, संकेतों में विश्वास और अस्त-व्यस्त केशों तथा रूखे सूखे कलेवर में अनन्त जीवन रस। छेड़िये तो तपस्वी की विभूति मिले, मौन रूप देखिये तो निर्विकल्प समाधि की परिधि तक चले जाइये। विरोध करिये तो फौलाद के स्पर्श का भान मिले। स्वीकृति दीजिए तो एक दिव्य आलोक की अनुभूति।" ऐसे अद्भुत विलक्षण रूपाकार एवं व्यक्तित्व को धारण करने वाले भारत रत्न राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन जी के जीवन से सम्बंधित कुछ तथ्य निम्नांकित हैं-
१८८८ ०१ अगस्त इलाहाबाद में जन्म।
१८९० सिटी एंग्लो वर्नाक्यूलर विद्यालय में प्रवेश।
१८९२ राधास्वामी मत का उपदेश लिया।
१८९४ मिडिल।
१८९४ अग्रजा तुलसा देवी का स्वर्गवास।
१८९७ हाई स्कूल।
१८९७ नरोत्तमदास खन्ना (मुरादाबाद नगर निवासी) की सुपुत्री चन्द्रमुखी देवी के साथ पाणिग्रहण संस्कार।
१८९९ कांग्रेस के स्वयं सेवक बने।
१८९९ इण्टरमीडिएट।
१९०० प्रथम संतति (कन्या) की प्राप्ति।
१९०१ म्योर सेण्ट्रल कॉलेज से निष्काष्ति।
१९०३ पिता श्री सालिगराम जी का निधन।
१९०४ बी०ए०।
१९०५ राजनीतिक जीवन का प्रारम्भ।
१९०५ बंगभंग आन्दोलन से प्रभावित होकर स्वदेशी का व्रत धारण किया।
१९०५ गोपाल कृष्ण गोखले के अंगरक्षक के रूप में कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लिया।
१९०५ 'बन्दर सभा महाकाव्य` नामक व्यंग्य कविता 'हिन्दी प्रदीप` में प्रकाशित।
१९०५ विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के रूप में चीनी खाना छोड़ दिया।
१९०६ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधि चुने गए।
१९०६ एल.एल.बी।
१९०७ एम०ए० (इतिहास)।
१९०७ चमड़े का जूता पहनना छोड़ दिया।
१९०८ हाईकोर्ट में सर तेजबहादुर सप्रू के जूनियर रहकर वकालत प्रारम्भ की।
१९०९ 'अभ्युदय` साप्ताहिक पत्र के संपादक।
१९१० १० अक्टूबर को हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना और मालवीय जी की अध्यक्षता में अधिवेशन, जिसमें टण्डन जी को सम्मेलन का प्रथम प्रधान मंत्री चुना गया।
१९१० 'मर्यादा` मासिक पत्रिका के संपादक।
१९११ इलाहाबाद में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का द्वितीय अधिवेशन करवाया।
१९१४ लखनऊ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का द्वितीय अधिवेशन करवाया। पं. श्रीधर पाठक उस अधिवेशन के अध्यक्ष थे।
१९१४ नाभा रियासत के विदेश मंत्री नियुक्त हुए।
१९१५ इलाहाबाद में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का द्वितीय अधिवेशन करवाया।
१९१६ जबलपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का द्वितीय अधिवेशन।
१९१८ नाभा रियासत की नौकरी से त्याग पत्र दे दिया।
१९१८ २२ दिसम्बर, 'हिन्दी विद्यापीठ` प्रयाग की स्थापना की।
१९१८ टण्डन जी के प्रयास से हिन्दी साहित्य सम्मेलन का इन्दौर में अधिवेशन हुआ। जिसके अध्यक्ष महात्मा गाँधी थे।
१९१९ इलाहाबाद म्युनिसिपैलिटी बोर्ड के चेयरमैन।
१९१९ २४ अक्टूबर 'किसान सभा` स्थाई समिति की बैठक के सभापति।
१९१९ 'किसान पुस्तक माला` का संकलन एवं प्रकाशन।
१९२० पटना में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का दसवाँ अधिवेशन करवाया।
१९२० असहयोग आंदोलन में गाँधी जी के आह्वान पर हाईकोर्ट की वकालत छोड़ दी।
१९२१ सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लेने के कारण १८ माह का कारावास। यह टण्डन जी की पहली जेल यात्रा थी।
१९२१ 'कांग्रेस स्वयं सेवक दल` के प्रथम संयोजक बने।
१९२१ इलाहाबाद की मेला तहसील के महावीर मेले में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई।
१९२१-२२ नमक का परित्याग।
१९२२ एक राजाज्ञा द्वारा चेयरमैनशिप से हटाया गया।
१९२३ पुन: म्युनिसिपिल बोर्ड के चेयरमैन नियुक्त हुए।
१९२३ चेयरमैनशिप से त्यागपत्र दे दिया।
१९२३ हिन्दी साहित्य सम्मेलन कानपुर में १३वें अधिवेशन के अध्यक्ष।
१९२३ गोरखपुर में प्रांतीय कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गए।
१९२३ उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष।
१९२३ हिन्दी साहित्य सम्मेलन की खपरैल की इमारत बनाकर कार्यालय स्थापित किया।
१९२४ दिल्ली में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन कराया।
१९२५ पंजाब नेशनल बैंक के मैनेजर पद पर नियुक्त हुए।
१९२६ लाला लाजपतराय के आग्रह से 'सर्वेण्ट्स ऑफ पीपुल्स सोसाइटी` में सम्मिलित हुए।
१९२८ पंजाब नेशनल बैंक के मैनेजर पद से त्याग पत्र दे दिया।
१९२८ बड़े दामाद की बस दुर्घटना से मृत्यु।
१९२९ 'लोक सेवा मण्डल` के अध्यक्ष।
१९२९ बैंक की नौकरी छोड़ दी।
१९३० २६ जनवरी महात्मा गाँधी के नेतृत्व में प्रथम स्वतंत्रता दिवस मनाया।
१९३० केन्द्रीय किसान संगठन की स्थापना की।
१९३० हृदय रोग से ग्रस्त घोषित किये गए।
१९३० बस्ती में बाबू शिवप्रसाद गुप्त और आचार्य नरेन्द्र देव के साथ पकड़े गये। १३ माह की सख्त कैद और जुर्माना हुआ।
१९३०-३२ टण्डन जी के नेतृत्व में किसानों ने सरकार को लगान देना बन्द कर दिया।
१९३१ २९ दिसम्बर इलाहाबाद में एक सार्वजनिक सभा का आयोजन हुआ, जिसमें टण्डन जी को गिरफ्तार कर नैनी जेल भेज दिया गया।
१९३१ गोंडा जेल में किसान आंदोलन के सिलसिले में पुन: पकड़े गये।
१९३१ नैनीताल में किसानों की दयनीय दशा पर एक वक्तव्य दिया।
१९३१ दूसरी कन्या का विवाह।
१९३२ सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया।
१९३२ गोरखपुर जेल में बन्द किये गए।
१९३३ २ जुलाई को लाहौर जेल के 'फ्री प्रेस ऑफ इंडिया` के प्रतिनिधि को एक वक्तव्य दिया जो गणेश शंकर विद्यार्थी और कानपुर के दंगों से सम्बंधित था।
१९३५ नागपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का २५ वाँ अधिवेशन करवाया।
१९३५ २८ दिसम्बर, इलाहाबाद में कांग्रेस की स्वर्ण जयन्ती समारोह के अध्यक्ष।
१९३५ २७ मार्च से लेकर ५ मार्च तक उड़ीसा में रहे।
१९३५ जून से लेकर अप्रैल १९३६ तक इलाहाबाद और लखनऊ के बीच संचालन समिति की बैठक में भाग लेने के लिए आते-जाते रहे।
१९३६-३७ नयी प्रान्तीय धारा सभाओं के चुनाव हुए। प्रयाग नगर से टण्डन जी निर्विरोध चुने गए। २९ जुलाई १९३७ को सदस्यता की शपथ ली।
१९३६ ६ फरवरी, इलाहाबाद में किसानों की दुर्दशा पर एक मार्मिक वक्तव्य दिया।
१९३६ २० जून 'एडवांस` पत्र में किसानों की दयनीय अवस्था पर एक वक्तव्य प्रकाशित हुआ।
१९३६ युक्त प्रान्तीय कमेटी बैठक में टण्डन जी उपाध्यक्ष चुने गए।
१९३६ बनारस जिला राजनैतिक सम्मेलन की अध्यक्षता की।
१९३६ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के नागपुर अधिवेशन में 'राष्ट्रभाषा प्रचार समिति` की स्थापना, जिसके सदस्य टण्डन जी भी थे।
१९३६ कलकत्ता की यात्रा की और एक विशाल जन समूह के समक्ष सार्वजनिक भाषण दिया।
१९३६ ५ अप्रैल, महात्मा गाँधी के द्वारा दिल्ली में हिन्दी साहित्य सम्मेलन में संग्रहालय की स्थापना करवायी, जिसका संकल्प १९२३ के हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में लिया गया था।
१९३६-३७ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के तत्वावधान में गठित 'व्याकरण समिति` के संयोजक।
१९३७ ३० जुलाई, सर्वसम्मत से विधान सभा के अध्यक्ष चुने गए।
१९३७ २७ अप्रैल, 'लोक सेवामण्डल` के धार्मिक अधिवेशन में एक हृदयग्राही भाषण।
१९३७ २६ मार्च, दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा मद्रास के छठवें उपाधि वितरण उत्सव के अवसर पर दीक्षान्त भाषण दिया।
१९३८ हिन्दी साहित्य सम्मेलन का शिमला में अधिवेशन करवाया। सभापति थे पं. बाबूराव विष्णु पराड़कर।
१९३८ २० अक्टूबर को कान्यकुब्ज कॉलेज, लखनऊ में 'हिन्दी की शक्ति` पर व्याख्यान दिया।
१९३९ फरवरी में हृदय रोग का दौरा पड़ा।
१९३९ १४ सितम्बर १९३९ को देश की समस्त विधान सभाओं के मंत्रिमंडलों ने त्यागपत्र दे दिया। तब टण्डन जी भी विधान सभा की अध्यक्षता से पृथक हो गए।
१९३९ ३ अक्टूबर को टण्डन जी ने एक सुनिश्चित वक्तव्य दिया जो जर्मनी-पोलैण्ड युद्ध से सम्बंधित था, जिसमें इंग्लैण्ड पोलैण्ड से संधिबद्ध होने के कारण उसके साथ था।
१९३९ काशी में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन करवाया, जिसमें सभापति थे अम्बिका प्रसाद वाजपेई इसमें आचार्य शुक्ल, श्यामसुन्दर दास, अयोध्या सिंह उपाध्याय, माखनलाल चतुर्वेदी, निराला, राहुल सांकृत्यायन, मैथिलीशरण गुप्त, आचार्य नरेन्द्र देव, राधाकृष्ण दास आदि ने भाग लिया।
१९४१ २ अप्रैल को बन्दी बनाकर नैनी जेल में रखा गया। वहाँ से फतेहगढ़ सेन्ट्रल जेल ले जाये गए, जहाँ लगभग ८ माह जेल में नज़रबन्द रहने के बाद जेल से छूटे। यह उनकी चौथी जेल यात्रा थी।
१९४२ 'राजनीतिक पीड़ित सहायता कोष` की स्थापना की और कानूनी सुरक्षा की व्यवस्था की। इस व्यवस्था के परिणामस्वरूप सात नवयुवकों की जान बचायी, जिनको फाँसी की सजा मिली थी।
१९४४ २२ अगस्त, जेल से छोड़े गए।
१९४४ १० अक्टूबर, संयुक्त प्रान्तीय प्रतिनिधि एसेम्बली की स्थापना और बाबू जी उसके अध्यक्ष चुने गये।
१९४४ 'सत्यार्थ प्रकाश` पर सिन्ध सरकार द्वारा लगाये गये प्रतिबंध का खुलकर विरोध किया।
१९४४ जयपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन करवाया।
१९४४ २ दिसम्बर, वीर अर्जुन में एक सन्देश प्रकाशित हुआ, जिसमें 'सत्यार्थ प्रकाश` पर लागाये गये प्रतिबंध का विरोध था।
१९४५ ८ फरवरी, 'सत्यार्थ प्रकाश` के समर्थन में 'ट्रिब्यून` नामक दैनिक पत्र में एक वक्तव्य प्रकाशित हुआ।
१९४५ आजाद हिन्द फौज के कैदियों की रिहाई के लिए बाबू जी ने धन संग्रह किया और उनकी कानूनी सहायता की।
१९४६ प्रान्तीय असेम्बलियों के चुनाव। बाबू जी सदस्य नियुक्त हुए और पुन: विधान सभा अध्यक्ष चुने गए।
१९४७ उत्तर प्रदेशीय दल का गठन किया।
१९४७-४८ 'भारतीय संस्कृति सम्मेलन संस्था` का गठन किया।
१९४७ मई में झाँसी के ताल बेहट नामक स्थान पर साम्प्रदायिक समस्या पर एक विशेष वक्तव्य दिया।
१९४७ १५ अगस्त, स्वतंत्रता दिवस समारोह में भाग नहीं लिया; क्योंकि देश-विभाजन से अत्यधिक दुखी थे।
१९४८ उत्तर प्रदेश कांगेस के पुन: अध्यक्ष चुने गये।
१९४८ विधान सभा का अध्यक्ष पद छोड़ दिया।
१९४८ 'विधान निर्मात्री` सभा का गठन। बाबू जी को इस सभा का सदस्य चुना गया।
१९४८ कुम्भ के अवसर पर भारतीय संस्कृति सम्मेलन करवाया।
१९४८ १५ अप्रैल, पवित्र सरयू नदी के तट पर सन्त देवरहा बाबा द्वारा 'राजर्षि` की उपाधि से विभूषित।
१९४८ कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए पट्टाभिसीता रमैया से हारे।
१९४९ भारतीय संविधान सभा की बैठक हुई, जिसमें टण्डन जी के प्रयासों के कारण संविधान सभा ने देवनागरी लिपि एवं हिन्दी को मान्यता दी।
१९५० आचार्य कृपलानी के विरुद्ध नासिक कांग्रेस के अध्यक्ष मनोनीत हुए।
१९५० १४ मई को सोरों की यात्रा कर वहाँ के प्राचीन स्थलों के दर्शन किये।
१९५१ कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया।
१९५१ १७ फरवरी, मुजफ्फरपुर सुहृद संघ के वार्षिकोत्सव के अवसर पर टण्डन जी ने इस मन्तव्य का वक्तव्य दिया कि मैंने हिन्दी के पक्ष को सबल करने के लिए ही कांग्रेस जैसी संस्था में प्रवेश किया है।
१९५२ इलाहाबाद से लोकसभा के सदस्य चुने गये।
१९५३ उड़ीसा का राज्यपाल बनना अस्वीकार कर दिया।
१९५३ २० मई, अखिल भारतीय आयुर्वेद शास्त्र चर्चा परिषद के द्वितीय अधिवेशन की अध्यक्षता की।
१९५४ २ जनवरी को (बाँदा) में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन करवाया।
१९५४ १६ फरवरी राज्य शासन विधेयक पर हिन्दी के सम्बंध में भाषण।
१९५४ २७ मार्च शिक्षा मंत्रालय के अनुदान पर भाषण जिसमें हिन्दी की भरपूर वकालत की गई।
१९५५ २ मार्च को 'उत्तर प्रदेश भूदान यज्ञ समिति` के अध्यक्ष के रूप में एक वक्तव्य प्रकाशित कराया।
१९५५ २६ मई को विन्ध्य प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन के छतरपुर अधिवेशन का उद्घाटन किया।
१९५६ उत्तर प्रदेश से राज्य सभा के लिए चुने गये।
१९५६ ३ मई, संसदीय विधिक और प्रशासनिक शब्दों के संग्रह हेतु गठित समिति के सभापति नियुक्त हुए।
१९६० संसद की सदस्यता से त्याग पत्र।
१९६० २३ अक्टूबर, प्रयाग में एक वृहद् अभिनंदन समारोह, जिसमें आपको डॉ० राजेन्द्र प्रसाद द्वारा अभिनन्दन ग्रंथ भेंट किया गया।
१९६१ २६ अप्रैल, भारत सरकार द्वारा 'भारत रत्न` की उपाधि से विभूषित किया गया।
१९६२ टण्डन जी के प्रयासों से केन्द्रीय सरकार ने सम्मेलन को राष्ट्रीय महत्व की संस्था घोषित किया।
१९६२ १ जुलाई प्रात: १० बजकर ५ मिनट पर प्रयाग में पंचतत्व में विलीन।
सन्दर्भ- १. प्रतीक पुरुष, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन (राजर्षि टण्डन जन्मशती विशेषांक, सम्मेलन पत्रिका) पृ०-४
२. राजर्षि का जीवन दर्शन, माखनलाल चतुर्वेदी (भारत रत्न राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन व्यक्तित्व एवं संस्मरण) पृ०-५९
३. स्वतंत्रता, ( राजर्षि टण्डन जन्मशती विशेषांक, सम्मेलन पत्रिका) पृ०-१८६-१८७
४. बन्दरसभा महाकाव्य (राजर्षि टण्डन जन्मशती विशेषांक, सम्मेलन पत्रिका) पृ०-१९१
५. भारतरत्न राजर्षि टण्डन :रूढ़िवाद के कट्टर विरोधी, त्रिभुवन नारायण सिंह, पृ०-५५
६. टण्डन जी और कांग्रेस, श्री लालबहादुर शास्त्री, राजर्षि अभिनन्दन ग्रंथ, पृ०-१०४
७. हमारे कुछ नेता, किशोरीदास वाजपेई, विश्वबन्धु, ४ अगस्त १९४६
८. श्रद्धेय टण्डन जी और मुसलमान, कुलकुसुम, अमृत पत्रिका, कांग्रेस विशेषांक, १६ दिसम्बर १९५०
९. नैतिकता की मूर्ति बाबू जी, श्री जय नारायण पाण्डेय (भारत रत्न राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन व्यक्तित्व एवं संस्मरण) पृ०-३८८

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